Wednesday, December 24, 2008

प्रगति मैदान...काहे की प्रगति?



कई बरस पहले की बात है इंडिया टुडे ने “ये भदेस भारतीय” की कवर स्टोरी के साथ एक अंक प्रकाशित किया था। जहां तक मुझे याद है काफी आलोचना हुई थी, उस अंक की...आलोचना की वजह बड़ी साफ थी कि हम भारत को आगे ले जाने की बजाए खुद ही उसकी कमियां गिनाने पर अमादा हैं। संयोग से कई बरस बाद उस अंक की याद ताजा हो गई...मैं इस बहस में नहीं पड़ रहा कि इंडिया टुडे का वो अंक प्रासंगिक या तर्कसंगत था या नहीं, मैं सिर्फ लोगों तक अपना हालिया अनुभव पहुंचाना चाहता हूं। फैसला आप करें...
बीते सोमवार की ही बात है, प्रगति मैदान गया था। इससे पहले एक-दो दफा पहले भी प्रगति मैदान गया हूं, पर किसी ना किसी स्टोरी के शूट के सिलसिले में...जब अंदर गए-काम किया और बाहर आ गए। सोमवार को ऐसा कुछ नहीं था...एक नुमाइश देखने के लिए गया था-इसलिए वक्त पर्याप्त था। गेट नंबर-2 पर पहुंचा, गार्ड ने बताया कि सामने भैरव मंदिर की तरफ गाड़ी पार्क करनी होगी, सबवे से लौटकर टिकट लेना होगा और उसके बाद अंदर।
तो साहब, हमने गाड़ी पार्क की, टिकट लिया और पहुंच गए अंदर। प्रदर्शनी कहां लगी है? मुझे उम्मीद थी कि सूचना देने के लिए जो टेंपरेरी ऑफिस बनाए गए हैं, वहां से ये पता चल जाएगा, देखा तो वहां सूचना देने के लिए कोई उपलब्ध ही नहीं था। खैर, तब तक सामने नजर पड़ गई- प्रदर्शनी सामने ही लगी हुई थी। प्रदर्शनी देखी, थोडी खरीदारी भी की।
वहां से निकला तो टॉयलेट ढूंढना शुरू किया। गेट नंबर-2 से अंदर घुसने के बाद बाएं मुड़ते ही जो टॉयलेट है उसकी हालत किसी छोटे शहर के रेलवे स्टेशन के टॉयलेट से कहीं ज्यादा बदतर थी। इतनी गंदगी कि वहां अब और गंदगी फैलाने की गुंजाइश ही नहीं बची है। (इस गंदगी को देखकर ही इंडिया टुडे का वो अंक याद आ गया था)
खैर, वहां से आए...कुछ खाने के इरादे से आगे बढ़ा। मसाला डोसा खाने की इच्छा थी। मसाला डोसा ऐसा था कि “थोड़ा खाओ-ज्यादा फेंको”…पानी मांगा तो पता चला कि पीछे नल लगा है, वहां मिलेगा पानी...हम पानी नहीं रखते।
आगे जाने की हिम्मत खत्म हो गई, मैं वापस लौट आया...ये सोचते हुए कि ये प्रगति मैदान किस प्रगति की राह पर है। ऐसे मोटे मोटे अवारा कुत्ते घूमते रहते हैं, कि अगर आपको दौड़ा कर काट लें, तो घूमने फिरने का शौक जिंदगी भर के लिए खत्म हो जाएगा। मैं इस पोस्ट को इस इरादे से लिख रहा हूं कि प्रगति मैदान जाने-आने वाले या वहां के मैनेजमेंट या फिर सरकार से जुड़े किसी शख्स तक ये बातें पहुंच जाएं (वैसे मुझे पूरी उम्मीद है कि सभी को पता ही होगा) वो इस बारे में सोचे, और तब शायद प्रगति मैदान-प्रगति मैदान की तरह दिखने लगे। अगर आप भी मेरी तरह के अनुभव से दो-चार हुए हों तो लिखें...क्या पता बात शायद दूर तलक चली जाए।

Monday, December 8, 2008

एक ईमानदार राय...

ये एक मित्र की टिप्पणी है, मुझे लगा कि इसे ब्ल़ॉगवाणी के जरिए ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जाए...जाहिर सी बात है ये मित्र एक दर्शक और पाठक भी हैं, लेकिन सुधांशु टीवी चैनल्स को सिर्फ कोसने के अलावा कुछ ईमानदार राय भी रखते हैं..


Media, irrespective of electronic or Print SUCKS in general however, having said that, thanks to them that Jessica Lal,Priyadarshini Matthu and BMW case are reaching justice(though, it takes heaps of time.
Thanks to Media that, India after 26th Nov. is atleast looking a bit united,i was pleased to see that no Channel(Not sure of India TV though..they mite be talking about the 'nakshatra' resulting in attack via their exlusivity)favoured any Political party. be it Narendra Modi & Naqvi(i m not sure that naqvi is worth even buying a lipstick for his wife if he is not into indian politics..IRONY) from BJP,Deshmukh of UPA to the Kerala CM(dont remeber the SICKO's name, he is not even worth). Kudos to Media and I guess,for these reasons, we can forgive all those laughter clipings and so called BREAKING NEWS's about some GOD's statue dring milk or Cow sitting on Road etc....

पिछले दिनों ब्ल़ॉग पर कई मित्रों ने टीवी चैनल्स को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाली पोस्ट प्रेषित की थी, किसी को भी अपने विचार में बदलाव की जरूरत महसूस होती है, तो सूचित करे...

Friday, December 5, 2008

हंगामा है (इसलिए) बरपा...


पिछली पोस्ट लिखने के 24 घंटों के भीतर ही ये खबर पढ़ने को मिल गई कि गुलाम अली साहब अब भारत नहीं आ रहे...उन्होंने एक अधिकारी से हुई बातचीत का ज्यादा खुलासा नहीं किया- पर इतना ज़रूर बोले कि ताजा हालात के मद्देनजर उन्हें भारत न आने की सलाह दी गई है। अली साहब ने ये भी कहा कि हालात अच्छे नहीं हैं...एक दफा कराची से वापस लौटते वक्त उनके साथ जहाज की बगल वाली सीट पर बैठने का मौका मिला था- खूब बातचीत हुई थी उनसी...हमारे कुछ खास दोस्तों ने एक बार उन्हें कानपुर में कार्यक्रम के लिए भी बुलाया था...उस कार्यक्रम का जिक्र हुआ उनके, कुछ बातें वो भूल गए थे-पर सारी नहीं। बहुत कुछ उन्हें याद भी था। खैर, फिलहाल तो वो हिंदुस्तान नहीं आ रहे हैं...और आगे क्या होगा, मालूम नहीं? उन्हें भी नहीं-हमें भी नहीं...अफसोस

मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इनको काम दो





अभी कल परसों ही किसी अखबार में पढ़ा था कि ग़ज़ल सम्राट ग़ुलाम अली बिहार में किसी महोत्सव के दौरान अपना कार्यक्रम पेश करेंगे। अब आज ये पढ़ने को मिला कि टेलीविजन चैनल्स पर चलने वाले लॉफ्टर शोज़ में पाकिस्तान से आए कलाकार अपने घर वापस लौट गए हैं। मैंने पढ़ा कि इन कलाकारों ने कहा है कि उनके कार्यक्रम के प्रोड्यूसर्स को कुछ संगठनों ने धमकी दी थी, लिहाजा वो वापस लौट गए। उन्होंने साफ किया है कि मुंबई धमाकों के बाद भी उनके साथी कलाकारों के बर्ताव में कोई फर्क नहीं आया था। फिर भी उन्होंने वापस लौटना ठीक समझा। हालात ठीक होने के बाद वो वापस आएंगे। हंसी मजाक के ये शोज़ आजकल हर चैनल का हिस्सा हैं (न्यूज चैनल्स का भी), ऐसे में दर्शकों को शायद इनकी कमी खलेगी....पर मेरे दिमाग में इससे आगे की बात चल रही है। मुझे लगता है कि एक बार फिर वो दौर शुरू हो गया है, जहां जल्दी ही कला और कलाकारों पर भी निशाना साधा जाएगा। कभी भी कोई भी कह सकता है कि गुलाम अली, आबिदा परवीन हिंदुस्तान न ही आएं तो अच्छा...और हमारे कलाकार तो सीमापार बिल्कुल ही ना जाएं...
मैं ज्यादा फिल्में देखता नहीं, पर जहां तक मैंने पढ़ा है कि पाकिस्तान में बनी “रामचंद पाकिस्तानी” नाम की फिल्म भारत में भी रिलीज हुई थी। इस फिल्म में एक पाकिस्तानी लड़के के गलती से भारतीय सीमा में आने को प्लॉट बनाया गया था। कहानी सच्ची थी, निर्देशक पाकिस्तानी थे और अपनी नंदिता दास ने फिल्म में अभिनय किया था।
इसके बाद “खुदा के लिए” नाम से बनी फिल्म तो मैंने भी देखी है। संगीत से आतंक तक का सफर...
बातों बातों में मुनव्वर भाई की एक ग़जल याद आ गई (अगर एक दो शब्द इधर उधर हो गए हों, तो माफी चाहूंगा) ग़जल के दूसरे शेर पर खास तवज्जो दें

हॉं इजाज़त है अगर तो एक कहानी और है
इक कटोरों में अभी थोड़ा सा पानी और है
मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इनको काम दो
इक इमारत इस शहर में काफी पुरानी और है
बस इसी एहसास की शिद्दत ने बूढ़ा कर दिया
टूटे-फूटे घर में इक बिटिया सयानी और है...
इन मज़हबी मज़दूरों का ही एक रोल वो भी है, जिसका जिक्र मैं पोस्ट की शुरूआत में कर रहा था। इनका इलाज क्या है?

Wednesday, December 3, 2008

बोलिए बोलिए...बोलने में क्या जाता है कि टीवी वाले बेवकूफ हैं! लेकिन...


टीवी चैनल्स पर मुंबई में हुए आतंकी हमलों को लेकर गलत ढंग से कवरेज का आरोप लगना शुरू हो गया है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ...और आखिरी बार तो कत्तई नहीं। प्रिंट के बड़े अखबारों के बड़े-बड़े रिपोर्टर ये लिखना शुरू कर चुके हैं कि टीवी वालों ने तो ऐसा दिखा दिया-वैसा दिखा दिया। कोई कह रहा है कि सुरक्षा दस्तों की प्लानिंग (वो होटल्स में कहां से घुसने की तैयारी में हैं, वो कहां से गोली चलाने वाले हैं, वो कितनी संख्या में हैं...वगैरह-वगैरह) टीवी चैनल्स की वजह से आंतकवादियों को पता चल रही थीं। कोई ना कोई जल्दी ही ये भी कहेगा कि मुंबई में आतंकी वारदात को भी टीवी चैनल्स ने EVENT बना दिया। ऐसे आरोप पिछले दिनों हुए अलग-अलग धमाकों के अलावा किसी बड़ी दुर्घटना या फिर मुंबई में आई बाढ़ के समय भी लगे हैं।
मैं जानना चाहता हूं कि कितने प्रिंट के रिपोर्टर गए थे ये देखने के लिए कि ताज-ओबरॉय या नरीमन प्वाइंट पर कैसे हालात है? गए भी थे तो कितने हैं जो पूरी रात...बल्कि करीब 60-65 घंटे तक लगातार रिपोर्टिंग करते रहे...आस पास से गोलियां तक निकली। कितने प्रिंट के रिपोर्टर थे जो मुंबई की बाढ़ में ढाई-तीन फिट पानी में उतर उतर कर लोगों तक जानकारी पहुंचा रहे थे। सुना है अब तो प्रिंट मीडिया के दफ्तरों में भी बाकयदा तमाम मॉनिटर लगे हुए हैं- वहीं बैठे बैठे कई खबरें तैयार हो जाती हैं। रिपोर्टर भी घर बैठे बैठे टीवी चैनल्स पर निगाहें गड़ाए रखते हैं। हॉं, अखबार में छपी खबरों पर टीवी में भी स्टोरीज होती हैं....पर इसमें बड़ा मैं या तू की लड़ाई की क्या ज़रूरत? पर कुछ लोग हैं जो तैयार बैठे हैं- हर वक्त कि जैसे ही मौका मिले, टीवी वालों पर कर दो हमला- बता दो कि इन्हें कुछ नहीं आता, ये तो बेवकूफ हैं।
मैंने भी प्रिंट मीडिया में काम किया है- मौका मिला तो आगे कभी फिर करूंगा। मुझे भी पता है कि कई खबरें फोन पर ही ली और दी जाती हैं। पर टीवी की मजबूरी है उसे दृश्य दिखाने होते हैं- दृश्य रात 12 बजे के हों या सुबह 4 बजे के।
निशाना साधना आसान होता है टीवी चैनल्स पर। भूल जाते हैं हमारे भाई-बिरादर कि जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू और नीतिश कटारा हत्याकांड की परतें खोलने में टेलीविजन चैनल्स का क्या रोल था। भूल जाते हैं लोग कि ये टेलीविजन चैनल की ही ताकत है कि एक गरीब घर का बच्चा प्रिंस जब गड्ढे में गिर जाता है तो राष्ट्रपति तक कहते हैं कि प्रिंस को बचाना है। भूल जाते हैं लोग कि एक छोटे से गुमशुदा बच्चे को टीवी किस तरह महज चंद घंटों में उसके परिवार तक पहुंचा देता है।
मैं ये नहीं कहता कि प्रिंट मीडिया की अहमियत नहीं- छपे हुए शब्द आज भी बेहद कीमती हैं। पर अखबार में बैठे भाई-बिरादरों को इन शब्दों को पाठकों तक पहुंचाने से पहले ये सोचना होगा कि वो टीवी चैनल्स पर उंगलियां क्यों उठा रहे हैं- क्या उनकी शिकायतें जायज हैं। अगर हॉं- तो स्वागत है ऐसे रिपोर्ट्स का। नहीं- तो फिर बेकार में कागज बर्बाद करने का क्या फायदा।
मुंबई में हुए आतंकी हमलों के दौरान आतंकवादियों का फोनो चलाने वाले चैनल या फिर मना करने के बाद भी आतंकवादियों के खिलाफ सुरक्षा दस्तों के ऑपरेशन की लाइव तस्वीरें दिखाने वाले चैनल से लोग नाराज हैं...ये नाराजगी स्वाभाविक है- जायज भी है। पर इसका ये मतलब नहीं कि आप बाकी सभी चैनल्स पर उंगलियां उठा दें। तमाम चैनल्स ऐसे भी हैं जिन्होंने सुरक्षा दस्तों की तमाम गतिविधियों को कैमरे में कैद करने के बावजूद उन्हें दर्शकों तक नहीं पहुंचाया। पहलू और भी हैं-
1- ताज होटल के बाहर से कवरेज कर रहे टीवी चैनल्स के रिपोर्टर्स तकरीबन 200-300 मीटर से ज्यादा की दूरी पर थे। इतनी दूर से सुरक्षा दस्ते की हर एक गतिविधि पर नजर रखना और उसे कैमरे में कैद करना मुश्किल है। वैसे भी ऑपरेशन ताज के कमरों के भीतर चल रहा था, सड़क पर नहीं।
2- ओबरॉय होटल में भी मीडिया के लोग काफी दूर थे।
3- नरीमन हाउस में जब हेलीकॉप्टर उपर से आया और उससे NSG के कमांडो उतरे, तो उसकी जानकारी तो आतंकवादियों को भी हो गई होगी। हेलीकॉप्टर साइलेंसर लगा कर तो चलता नहीं।
4- ये सच है कि टीवी कवरेज पर आंतकवादियों की नज़र रही होगी, पर आतंकी सिर्फ टीवी चैनल ही देख रहे होंगे, ये मुमकिन नहीं।
मुझे याद आता है कि कई साल पहले (शायद 1999 के आस पास की बात है) जाने माने समीक्षक और टीवी चैनल्स पर तमाम अखबारों में लिखने वाले सुधीश पचौरी जी की एक किताब राजकमल ने छापी थी- ब्रेक के बाद। किताब के विमोचन के मौके पर नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी जैसे बड़े साहित्यकार मौजूद थे। वहां नामवर जी ने कहा था कि टीवी चैनल्स समाज में अपराध और अश्लीलता जैसी तमाम तरह की विसंगतियां फैला रहे हैं- तब भी मैंने जनसत्ता या राष्ट्रीय सहारा में से किसी एक अखबार के संपादक को चिठ्ठी लिखी थी कि क्या प्रिंट मीडिया में मनोहर कहानियां, सच्ची कथाएं और दफा 302 जैसे पत्रिकाएं नहीं छपती। वह भी प्रिंट मीडिया का ही एक हिस्सा हैं। क्या मनोहर कहानियां, सच्ची कथाएं और दफा 302 पर निशाना साधते हुए कोई ये कह सकता है कि पूरा का पूरा प्रिंट मीडिया ही दूषित है। तो फिर गंभीर किस्म की पत्रिकाओं का क्या होगा?
बॉलीवुड में एक कंपोजर हैं-विशाल डडलानी। वो नाराज हैं। वो भी मुंबई में हुए आतंकी हमलों को लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कवरेज से ही नाराज हैं। वैसे ये बात साफ नहीं हो पाई है कि वो सभी चैनलों की कवरेज से नाराज हैं या कुछ चैनलों की। कहीं वो भी तो ये नहीं कहना चाहते कि आतंकी वारदात को भी टीवी चैनल्स ने EVENT बना दिया। अगर वो ऐसा कहना चाहते हैं तो सौ बार सोच लें, क्योंकि कभी भी उनसे पलट कर ये सवाल पूछा जा सकता है कि कल अगर कोई निर्माता-निर्देशक इन धमाकों पर फिल्म बनाएगा और उन्हें साथ काम करने का ऑफर देगा तो क्या वो मना कर देंगे?
24 घंटे लगातार खबरें पहुंचाने वाले चैनल्स के कामकाज के तरीके को समझने की जरूरत है। इस बात को समझने की बेहद जरूरत है कि टीवी चैनल्स में किसी भी पद पर काम करने वाले की सुबह या शाम नहीं होती- होली या दीपावली नहीं होती...होती है तो 10-12 घंटे (कभी कभी इससे काफी ज्यादा) की शिफ्ट, और उस शिफ्ट में इस बात की चुनौती कि वो किसी भी खबर को इस अंदाज में पेश करे कि दर्शक सिर्फ उसके चैनल पर खबर देखें।
इस माध्यम की उम्र जानने की जरूरत है। टीवी न्यूज चैनल्स अभी तकरीबन 10 साल के ही हैं। थोड़ा बचपना है, पर अब चीजों को सहेजने की अक्ल आ रही है उनमें। थोड़ा वक्त दिजिए, टीवी चैनल्स में संजीदगी बढे़गी।

चुप रहते तो अच्छा होता?


दिल्ली में हाल ही में हुए धमाकों के दिन मुझे रिपोर्टिंग के लिए भेजा गया था, उस एक दिन को छोड़ दिया जाए तो आतंकी हमलों को लेकर क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए इस पर मेरी राय का मेरे प्रोफेशन से कोई लेना देना नहीं है। लिहाजा ये पोस्ट मेरी एक सोच है, जो हो सकता है ग़लत भी हो, पर अगर मेरी सोच सही है, तो इस पर ध्यान देने की जरूरत है। मोटे तौर पर मेरा ये मानना है कि किसी भी बड़ी आतंकी घटना की जांच के बारे में, उसकी बारीकियों की जानकारी पुलिस अधिकारियों तक ही सीमित रहनी चाहिए।

आम आदमी ये जानकर भी कुछ कर नहीं सकता कि जो हुआ वो कैसे हुआ...क्योंकि आज की तारीख में क्या हिंदुस्तान ये जानना चाहता है कि मुंबई में आतंकी दहशत फैलाने वाले कितने लोग थे? वो मुंबई कहां से पहुंचे? उन्होंने कितनी टोलियां बनाई थीं? वो कितने ग्रुप्स में थे…वगैरह-वगैरह नहीं बिल्कुल नहीं, इससे ज्यादा उसकी दिलचस्पी ये जानने में है कि वो आने वाले दिनों में ऐसे हमलों से कैसे बचा जाएगा? आतंकवादियों को किसी भी शहर में कदम रखने से पहले ही कैसे धर दबोचा जाएगा? एक आम आदमी के दिल में बैठे डर को कैसे दूर किया जाएगा? आम इंसान सुरक्षित हैं ये भरोसा कैसे दिलाया जाएगा?
अभी कल ही मुंबई के पुलिस आयुक्त हसन गफूर ने एक प्रेस कांफ्रेस करके बताया कि
1- सभी 10 आतंकी पाकिस्तान से आए थे
2- उन्हें मुंबई में कोई स्थानीय मदद नहीं मिली
3- नौ आतंकी मारे गए हैं और एक आतंकी जिंदा पकड़ा गया है
4- आतंकियों की संख्या को लेकर कोई भ्रम नहीं है
5- दस आतंकी दो-दो की संख्या के पांच समूहों में निकले थे
6- दो समूह यानी चार आतंकी होटल ताज महल में गये
7- दो-दो आतंकवादी ओबेराय समूह के ट्राइडेंट होटल और नरीमन भवन गए
8- दो आतंकी मुंबई छत्रपति शिवाजी टर्मिनस गए
9- सभी आतंकियों के पास 1-1 एके असॉल्ट राइफल और दस-दस भरी मैगजीन यानी लगभग 300 राऊंड पिस्टल की गोलियां थीं
10- आतंकियों ने 5 बम प्लांट किए थे। इसमें से दो टैक्सियों में, एक ओबेराय होटल के करीब, एक लियोपोल्ड कैफे और ताज होटल के बीच और एक ताज होटल के निकट प्लांट किया गया था


मुझे सिर्फ एक बात का डर है...क्या ये सारे दावे जो पुलिस अधिकारियों ने किए हैं, वो सही हैं? क्या पकड़े गए आतंकवादी ने जितनी जानकारियां दी हैं, वो सही हैं? सहीं हैं तो, या गलत हैं तो भी मेरी परेशानी कम नहीं होती...ये बात तो हर कोई जानता है कि इतनी बड़ी आतंकी वारदात को अंजाम देने की साजिश रखने वाले आकाओं ने हमले के बाद किसने क्या कहा पर पूरी नजर रखी होगी। उन्हें पता होगा कि किस अधिकारी, किसी राजनीतिक दल, किस नेता या मीडिया ने क्या कहा...
मान लिया कि ये सारी जानकारियां जो मुंबई के पुलिस आयुक्त ने दी हैं वो सही हैं...तो अगली बार आतंक के आकाओं की योजना इससे ज्यादा पुख्ता तौर पर बनाई जाएगी...और अगर ये गलत हैं तो फिर तो आतंक फैलाने वालों के लिए रास्ता और आसान है। उन्हें पता चल ही जाएगा कि उन्होंने जो किया वो कैसे किया, इसकी सही जानकारी किसी के पास नहीं है।
हो सकता है आप मेरी राय से सहमत ना हों, पर भूलिएगा नहीं कि तमाम घटनाओं के बाद पुलिस अधिकारियों की प्रेस कांफ्रेंस में किए गए दावे गलत साबित हुए हैं। एक ही विस्फोट के मास्टरमाइंड कई बार मारे गए हैं, और किसी को याद नहीं कि जम्मू के रघुनाथ मंदिर में हुए आतंकी हमलों में दरअसल कितने आतंकवादी थे...क्या आप सहमत हैं आतंकी मामलों की जांच प्रक्रिया का कोई भी हिस्सा सार्वजनिक नहीं होना चाहिए? और तो और इस बार तो नेवी और एनएसजी के आला अधिकारियों ने भी इस ऑपरेशन के बारे में प्रेस कॉन्फ्रेंस की, क्या वाकई इसकी ज़रूरत थी? आप बताइए...

Wednesday, November 26, 2008

साधो सबका, सब साधो हमारे







बहुत डरते डरते जीतेंद्र जी से SMS करके पूछा कि क्या साधो फेस्टीवल पर लिखी गई रिपोर्ट मैं अपने ब्लॉग पर डाल सकता हूं...जवाब आया-
साधो सबका, सब साधो हमारे
मजा आ गया, साधो के बारे में और जीतेंद्र जी के बारे में पहले भी इस ब्लॉग में थोड़ी बहुत बातचीत हुई है। अब इस बार प्रताप भाई की शानदार रिपोर्ट को अपने ब्लॉग पर डालने का मौका मिल गया। चलिए किसी ना किसी तौर पर मैं भी खुद को साधो से जुड़ा हुआ मान सकता हूं।
उम्मीद है कि आप इस पोस्ट को पसंद करेंगे। गुजारिश है कि अगर आप इस पोस्ट पर कोई भी टिप्पणी देना चाहें, तो उसकी एक प्रति http://sadho.com/?p=1171 इस पन्ने पर भी ज़रूर डालें। इससे साधो से जुड़ी टीम तक आपकी राय सीधे पहुंच सकेगी।
“अस्त्र, जिनकी केवल एक बार आवश्यकता पड़े, जीवन भर साथ रखना पड़ता है
कविताएं, जिन्हें जीवन भर दोहराया जाता है, एक बार ही लिखी जाती हैं”
विख्यात रूसी लेखक रसूल हमज़ातोव कविता का जो अथॆ समझाते हैं, वह हमें कानपुर के कविता फिल्म समारोह के दौरान बार-बार पलटकर हमारे पास आया। कविता ओढ़ते-बिछाते आयोजन के ४८ घंटे हमसब की यादों का सबसे खूबसूरत हिस्सा बन चुके हैं।
शुरूआत की बात आखिर से
बात अंत से ही शुरू करता हूं। समारोह संपन्न हो चुका था। दिल्ली से आए साधो के आठ मित्र लौट रहे थे।
ट्रेन जब कानपुर प्लेटफामॆ छोड़ रही थी। तभी हमारे एक साथी ने कहा-सर, ये कविता फिल्म महोत्सव एक आयोजन से बढ़कर पारिवारिक उत्सव रहा। ये भाव प्लेटफामॆ पर ख़ड़े हम सब के मन में था। अभिव्यक्ति किसी एक ने दी थी।
गुजरे दो दिन यानि ४८ घंटे। कविता फिल्म समारोह की तैयारियों ने यूं तो सप्ताह भर से हमें एक दूसरे से और सघन रूप से बांध दिया था। एक दफ्तर में अलग-अलग पदों पर काम करने वाले लोगों के बीच पद और अधिकार के बोध की जगह परस्परता और विश्वास ने ले लिया था। कभी-कभार मिलने वाले लोगों से रोज मिलना हो रहा था। एक-दूसरे से चुहल करने के लिए नए-नए प्रसंग और मुहावरे गढ़े जा रहे थे।
एक ने आकर कहा-सर, महेश जी को किसी फिल्म में चांस दिला दीजिएगा। बुढ़ापा सुधर जाएगा, बड़ी मेहनत कर रहे हैं। महेश शर्मा अमर उजाला काम्पैक्ट एडीशन के चीफ रिपोटॆर हैं और आयोजन के सूत्रधार जनों में एक।
कौशल किशोर जो अमर उजाला के मेट्रो एडीशन के इंचाजॆ हैं, उन्हें देखते ही रिपोटॆर मजाक करते थे, सर यहां से तो एसाइनमेंट पर मत भेजिए। आयोजन से जुड़े लोग जाने कितने अरसे बाद एक-दूसरे के साथ एक जगह जुटे और खुलकर हंसे थे। साधन और व्यवस्था जो पहले दिन हमारे लिए चिन्ता के विषय में थी, एक बार बात लोगों तक पहुंची तो इतने लोग सामने आए कि हमे चुनना पड़ा कि गाड़ी किससे लेगें और सभागार किससे कहेंगे।
कविता फिल्म समारोह हमारे लिए हर क्षण हमारे लिए एक नए अनुभव से गुजरना था। कविता फिल्म महोत्सव के बारे में पहले दिन जिन साथियों को पोएट्री फिल्म का मतलब समझाना पड़ा था। १६ फिल्मे दिखाने के नाम पर जो चौंक कर प्रति फिल्म तीन घंटे की अवधि जोड़ कर चिंतित हो जाते थे। अब कहने लगे थे कि पास के किसी शहर में आयोजन हुआ तो फिर जाउंगा। कविता फिल्म महोत्सव के उददेश्यों की सफलता का ये रिपोटॆ काडॆ था। दो दिन पहले तक जो लोग कविता फिल्में और साधो के बारे में लगभग अपरिचित से थे, वे सभी पूरे आयोजन को परिवार की परिधि में देख रहे थे।
चाय की दुकान पर
सबके पास फिल्म समारोह से जुड़े अलग-अलग किस्से थे। आखिरी किस्सा आपको सुनाए देता हूं। स्टेशन पर छोड़ने गए लोगों के हाथ में एक-एक सीडी थी। ये सीडी साधो दिल्ली के मित्रों ने हम सबको उपहार स्वरूप दी थी। चाय की दुकान पर बैठे सभी साथी फिल्म समारोह के किस्से साझा कर रहे थे। हमारे एक साथी डा. राम महेश मिश्र ने सीडी का पैकेट खोला तो चौंक पड़े। बोले, मेरे डिब्बे में तो सीडी ही नहीं है। एक ने चुहल की-तुम्हें कविता फिल्में देखने के लिए क्वालिफाई नहीं पाया गया होगा इसलिए खाली डिब्बे से काम चलाओ। कुछ के चेहरे पर नकली संजीदगी थी, कुछ अपनी मुस्कुराहट छिपाने में लगे थे। राममहेश ने आयोजन की यात्रा व्यवस्था के पक्ष में बड़ी मेहनत की थी, बेचारे मुंह लटका लिए। मैनें कहा कि आपके लिए अतिरिक्त सीडी मंगा लेंगे। वे बोले, इतनी खूबसूरत और साथॆक फिल्में थी कि उसकी प्रति का खोना कुछ छूटने जैसा लग रहा है। थोड़ी देर बाद आपस की खुसर-पुसर और हंसी न छुपा सकने वालों के जरिए पता चल गया कि हमारे एक तीसरे साथी ने चुहल की थी। चुपके से राममहेश के पैक से सीडी निकाल ली। इस तरह आयोजन की तैयारी, आयोजन और विदाई, सबकुछ कानपुर की यादों का हिस्सा बन गया।
सीधे प्रेक्षागृह से
कविता फिल्म समारोह के लिए निमंत्रित करते समय हमने १५० लोगों के आने की एक अंतिम संख्या मन में सहेज रखी थी। यही सोचकर ३०० लोगों को निमंत्रण भेजे।
सीएमएस सभागार के व्यवस्थापक समारोह शुरू होने के पहले से बीच-बीच में कुर्सियां डालने लगे। लोग आते ही जा रहे थे। बीच में अपने सीपीएस तोमर हाल में एक तरफ से दूसरी तरफ गुजरते हुए कुर्सी लगाने वाले को टोकते हैं। कहते हैं - बीच में थोड़ी जगह छोड़ दो। वो बोल पड़ता है, सर, हमें क्या पता इतने लोग आ जाएंगे। उसकी झल्लाहट हमें एक सुख दे रही थी। एक उम्मीद की आने वाले दिनों में मझोले शहर सांस्कृतिक वातावरण की शुद्धता और परंपरा के वाहक बनेंगे।
कुछ सवाल जो बार-बार आए
कविता फिल्म समारोह के आयोजन में कुछ ऐसे सवाल हम तक आए, जो हंसाते भी थे और बहुत कुछ सोचने को मजबूर भी करते थे। समारोह शुरू हुआ। सीएमएस के निदेशक एमए नकवी ने स्वागत किया। सहारा समय न्यूज चैनल के ब्यूरो प्रमुख राजीव तिवारी संचालन के लिए माइक हाथ में थामें तैयार थे। आयोजन वाले दिन जब जितेंद्र जी ने कहां कि आज हम १२ फिल्में दिखाएंगे, इससे पहले की वह बताते कि फिल्में कुछ सेंकेंड्स से कुछ मिनटों की हैं। प्रेक्षागृह में बैठी एक लड़की बोल बगल बैठी सहेली से बोल पड़ी २४ से ३६ घंटे तक फिल्में दिखाएंगे क्या?
कानपुर में यह समारोह क्यों? यह एक ऐसा सवाल था जो आयोजन की परिकल्पना पर किसी भी शहरी से बातचीत के घूम-फिर कर आ जाता था। यहां तक की साधो की प्रेस कांफ्रेंस तक में यह सवाल सामने से आ ही गया। छोटे और मझोले शहरों को साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजनों के पात्र न समझा जाए, यह सवाल इस चिन्ता को भी हम तक ले आया।
नंदन सक्सेना ने आयोजन वाले दिन जब ये कहा कि साधो की परिकल्पना ही यही है कि हम छोटे-छोटे शहरों और समूहों कर कविताओं को अलग-अलग माध्यमों से ले जाएं। फिल्म समारोह उसी की एक कड़ी है। मुझे लगता है कि बहुत सारे लोगों को जवाब मिल गया था।
इस समारोह से आयोजकों का फायदा क्या है? कविताओं पर आधारित फिल्में बनाना क्या जीविकोपाजॆन का माध्यम हो सकता है? ये सवाल किसी ने सीधे पूछे तो किसी न इशारों में।
एक दशॆक दम्पति व अंत, एक शुरूआत…
लखनऊ से सिफॆ समारोह के निमित्त आए कवि सर्वेन्द्र विक्रम और उनकी पत्नी का जिक्र किए बिना तो आयोजन के जरूरी प्रसंग पूरे नहीं होगें। उनका आना जितना सुखद था, उससे कई गुना प्रफुल्लता उनके उस वाक्य से हुई जो आयोजन के ठीक बाद उन्होंने कहा। सर्वेन्द्र बोले-ये समारोह कराने में कितना खर्चा आता होगा, मैं वही जोड़ रहा था। उन्हें जब यह खबर लगी कि सबकुछ थोड़े-थोड़े प्रयासों से हुआ है, साधन तो नाम-मात्र का रहा। उनका उत्साह कई गुना बढ़ गया।
मुझे लगा साधो का कारवां इसी तरह की कड़ियों से मिलकर ही आगे बढ़ेगा। आयोजन जहां सिफॆ प्रदशॆन ही नहीं, भीतर के भाव को दूसरों तक पहुंचाने में सफल होगें।
कानपुर में तो ऐसा ही हुआ। आगे की उम्मीद क्यों न करें?

Wednesday, November 19, 2008

मैं निमंत्रण दे रहा हूं...

“सपनों का मर जाना” इस ब्लॉग को लेकर यारों दोस्तों से अक्सर बातचीत होती रहती है...मुझे भी लगता है कि मैं इस ब्लॉग के साथ न्याय नहीं कर पा रहा हूं...ज्यादातर पोस्ट सरजूपार की मोनालीसा (www.sarjuparkimonalisa.blogspot.com)के खाते में चली जाती है...रही सही बातें खेल (www.pardekepichekakhel.blogspot.com) पर
लिहाजा फिलहाल सपनों का मर जाना ब्लॉग समर्पित कर रहा हूं तमाम साथियों को, जो भी चाहे इस नाम से नया ब्लॉग बनाए- और अच्छी रचनाएं हम तक पहुंचाए...इस ब्लॉग पर सिवाय पाश की कविता के कुछ ज्यादा लिख भी नहीं पाया था...
खैर, इस ब्लॉग को अब मैं सरजूपार में ही जोड़ दे रहा हूं...और सरजूपार को पढ़ने के लिए जो भी चंद यार दोस्त आते हैं उन्हें बताना जरूरी है कि ज़ी न्यूज के पुराने सहयोगी पराग छापेकर के जरिए मैं पहुंचा था इस कविता तक...पराग ने हमारी डेस्क पर इन पक्तियों को चस्पा कर दिया था...
खैर, आप कविता पढ़िए


सबसे खतरनाक होता है..

पाश(अवतार सिंह संधु)

मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती,
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती,
गद्दारी, लोभ का मिलना सबसे खतरनाक नहीं होती,
सोते हुये से पकडा जाना बुरा तो है,
सहमी सी चुप्पी में जकड जाना बुरा तो है,
पर सबसे खतरनाक नहीं होती,
सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना,
न होना तडप का सब कुछ सहन कर जाना,
घर से निकलना काम पर और काम से लौट कर घर आना,
सबसे खतरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना ।
सबसे खतरनाक होती है, कलाई पर चलती घडी, जो वर्षों से स्थिर है।
सबसे खतरनाक होती है वो आंखें जो सब कुछ देख कर भी पथराई सी है,
वो आंखें जो संसार को प्यार से निहारना भूल गयी है,
वो आंखें जो भौतिक संसार के कोहरे के धुंध में खो गयी हो,
जो भूल गयी हो दिखने वाले वस्तुओं के सामान्य
अर्थऔर खो गयी हो व्यर्थ के खेल के वापसी में ।
सबसे खतरनाक होता है वो चांद, जो प्रत्येक हत्या के बाद उगता है सुने हुए आंगन में,
जो चुभता भी नहीं आंखों में, गर्म मिर्च के सामान
सबसे खतरनाक होता है वो गीत जो मातमी विलाप के साथ कानों में पडती है,
और दुहराती है बुरे आदमी की दस्तक, डरे हुए लोगों के दरवाजे पर

Tuesday, November 18, 2008

ठहरिए...मिलिए जिंदगी की जंग जीतने वालों से














इसी साल चीन में ओलंपिक कवरेज के दौरान एक दिन इस कार्यक्रम को देखने का मौका मिला...सोच कर गया था कि 15-20 मिनट के शॉट्स एक पीटीसी और दो बाइट लेकर आधे घंटे में स्टोरी करके वापस आ जाउंगा...पर एक बार कार्यक्रम शुरू हुआ तो हिलने की हिम्मत नहीं हुई...मंच पर आने वाले कलाकार और उनकी शारीरिक चुनौतियों को जानने के बाद उनका आत्मविश्वास ऐसा था कि कुर्सी से उठने का दिल ही नहीं किया...हॉं करीब 3 घंटे बाद कार्यक्रम के खत्म खत्म होते होते आंखे ज़रूर भर आईं...और मंच पर जब सारे कलाकार एक साथ ऑडियंस का शुक्रिया अदा करने और अलविदा कहने पहुंचे तो आंसू छलक गए...तस्वीरें खुद-ब-खुद सब कुछ बयां करती हैं...मैंने करीब 200 से भी ज्यादा तस्वीरें ली थीं इस कार्यक्रम की, आप लोगों तक पहुंचा रहा हूं...इन तस्वीरों के साथ आपको छोड़ रहा हूं, इन्हें बहुत गौर से देखिए- याद रखिए ये लोग या देख नहीं सकते-सुन नहीं सकते-बिना सहारे के चल नहीं सकते- बोल नहीं सकते...इन्हें दुआएं दीजिए कि ये अपनी जिंदगी को इन चुनौतियों के बावजूद यूं ही रंगीन बनाए रखें...

MY DREAMS- थोड़ी सी जानकारी इस ग्रुप के बारे में...

चाइना डिसेबल्ड पीपल्स परफॉरमिंग आर्ट ट्रूप 1987 में शुरू हुआ था...ऐसे लोगों को दिमाग में रखकर जिनके लिए जिंदगी एक चुनौती है- ये वो लोग हैं जिन्होंने कभी हार नहीं मानी- एक ने दूसरे का हाथ थामा, दूसरे ने तीसरे का, तीसरे ने चौथे का और धीरे धीरे एक दूसरे के लिए आंख-कान-और आवाज बन गए...खूबसूरती और इंसानियत का संदेश लेकर आज ये ग्रुप जब मंच पर उतरता है, तो आपको देकर जाता है- कभी ना भूलने वाली यादें और सिखा जाता है जिंदगी को जीने का जज्बा...अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, डेनमार्क, पोलैंड, स्विटज़रलैंड, ग्रीस, इटली, स्पेन, फ्रांस, ऑस्ट्रिया, जर्मनी, टर्की, जापान, कोरिया, इंडोनेशिया, सिंगापुर, मलेशिया, ब्रूनेई, थाइलैंड, इजिप्ट जैसे देशों में इस ग्रुप ने अपनी परफॉरमेंस दी हैं...

Wednesday, November 12, 2008

डरिएगा नहीं...


सड़क पर पड़ी लाश को देखकर;
कोई तो रूक जाता है,
उस गरीब बेसहारा औरत को;
कोई तो खाना खिलाता है,
अंदर से जमा हो रहे फॉर्म को देखकर;
कोई तो चिल्लाता है,
मैं ऐसे काम नहीं कर सकता;
कोई तो जा’के’ बताता है,
उसकी नौकरी चली जाएगी अगर....
कोई तो कुछ बातें छिपाता है.
इस काम को “ऐसे” नहीं “ऐसे” करो
कोई तो ये समझाता है,
अंकल! आपका कुछ सामान गिर गया;
कोई तो ये चिल्लाता है.
पर ये क्या
धमाका...बम ब्लास्ट
जान चली गई एक मासूम की...
बुझ गया घर का चिराग...
ये जानकर आप डरे तो नहीं?
डरिएगा नहीं....
चिल्लाने-बताने-समझाने
से बचिएगा नहीं...
थोड़ी बहुत ही सही
पर तड़प है अभी हम सबमें...

(मेहरौली में हुए धमाके के बाद लिखी गई पंक्तियां)
ये पक्तियां मेरे दूसरे ब्लॉग www.sapnokamarjana.blogspot.com पर भी हैं, क्योंकि कहीं न कहीं मुद्दा "तड़प" का है)

Tuesday, November 4, 2008

बिटिया....


सबसे पहले तो जितेंद्र रामप्रकाश का शुक्रिया....शुक्रिया इस बात का क्योंकि वो हिंदी कविता के लिए वाकई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। कविताओं का फिल्म फेस्टिवल कराना कहीं से आसान काम नहीं...दरअसल कविताएं उनकी जिंदगी में रही हैं। मयूर विहार में उनके घर में एक कमरा है किताबों के नाम...और दिल में तमाम जगह। दिल्ली और चंडीगढ़ में कविताओं का फिल्म फेस्टिवल आयोजित कराया जा चुका है। उनके साथ कुछ ऐसे लोगों की टोली है, जिनके लिए जिंदगी के कुछ मायने हैं।
www.sadho.com इस वेबसाइट पर जाएं, आपको पूरी जानकारी मिलेगी। जितेंद्र जी उस दौर के टीवी एंकर हैं, जब हजारों में एक-दो लोग एंकर बन पाते थे...आज जैसी हालत नहीं थी कि लखूभाई पाठक के मरने के बाद उनकी प्रतिक्रिया लाने का काम रिपोर्टर को दिया जाता है- पीएस पशरीचा के मुंबई के पुलिस कमिश्नर बनने पर पूछा जाता है कि वो किस पार्टी के हैं। खैर, ऐसे सैकड़ों किस्से हैं- जितेंद्र जी ने 2001 के आस पास एंकरिंग का ज्यादातर काम छोड़ दिया था...अपनी मर्जी से, उसके बाद वॉयस ओवर-नए चैनल्स के लिए एंकर्स की वर्कशॉप...और sadho.com
जितेंद्र जी के बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है- पर बाकी कई रोचक किस्से अगली बार...अच्छा हॉं, जितेंद्र जी के पास खुद का लिखा भी बहुत कुछ है- मुझे इंतजार है कि वो साधो के जरिए कब पाठको के पास पहुंचेगा....खैर साधो का सबसे नायाब तोहफा वो कविता जो सर्वेश्वर जी ने लिखी है.....

पेड़ों के झुनझुने,
बजने लगे;
लुढ़कती आ रही है
सूरज की लाल गेंद।
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।

तूने जो छोड़े थे,
गैस के गुब्बारे,
तारे अब दिखाई नहीं देते,
(जाने कितने ऊपर चले गए)
चांद देख, अब गिरा, अब गिरा,
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।

तूने थपकियां देकर,
जिन गुड्डे-गुड्डियों को सुला दिया था,
टीले, मुंहरंगे आंख मलते हुए बैठे हैं,
गुड्डे की ज़रवारी टोपी
उलटी नीचे पड़ी है, छोटी तलैया
वह देखो उड़ी जा रही है चूनर
तेरी गुड़िया की, झिलमिल नदी
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।

तेरे साथ थककर
सोई थी जो तेरी सहेली हवा,
जाने किस झरने में नहा के आ गई है,
गीले हाथों से छू रही है तेरी तस्वीरों की किताब,
देख तो, कितना रंग फैल गया

उठ, घंटियों की आवाज धीमी होती जा रही है
दूसरी गली में मुड़ने लग गया है बूढ़ा आसमान,
अभी भी दिखाई दे रहे हैं उसकी लाठी में बंधे
रंग बिरंगे गुब्बारे, कागज़ पन्नी की हवा चर्खियां,
लाल हरी ऐनकें, दफ्ती के रंगीन भोंपू,
उठ मेरी बेटी, आवाज दे, सुबह हो गई।

उठ देख,
बंदर तेरे बिस्कुट का डिब्बा लिए,
छत की मुंदेर पर बैठा है,
धूप आ गई।
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना



सर्वेश्वर जी की कविता को पढ़ने के बाद दिमाग में आई कुछ पक्तियां अपनी बिटिया शिवी के नाम, जो एक साल की हो चुकी है....


शिवी ने चीजों को तोड़ना शुरू कर दिया है...
तोड़ती भी ऐसे है...कि जुड़ जाएं वो चीजें
हॉं...हॉं, सच में
जो फूलदान कल तोड़ा है उसने
उसे जोड़ दूंगा मैं ‘क्विक फिक्स’ से

शिवी ने बोलना शुरू कर दिया है,
बोलती भी ऐसे हैं...कि अधूरी बातें पूरी लगें
जो पा....पा कल बोला है उसने
उसे पूरा कर दूंगा मैं

शिवी अब ‘पापा-मम्मी’ का सर भी दबाती है
बालों में उंगलियां घुमाती है...थपकियां लगाती है
चक चक करना कहते हैं हम उसे
शुरू हो जाती है वो अपनी नन्हीं हथेलियों से
बाहों में भर लेता हूं मैं उसे

शिवी ने चलना शुरू किया था कुछ दिनों पहले
बालकनी में लड़खड़ाते लड़खड़ाते
अब गिरी कि तब गिरी...
पर लगता है जिस दिन आठ-दस एकसाथ कदम चल लेगी
चांद पकड़ कर मुट्ठी में भर लेगी
दसवीं मंजिल से चांद करीब लगता है उसे
आठ-दस कदम के बाद गोद में उठा लूंगा मैं उसे...
चांद और करीब आ जाएगा।
चलो शिवी...चांद पकड़े...

Friday, October 24, 2008

बच्चन के बहाने दर्शन


भाई शिवेंद्र,
ख्वाबों का सच होते सुना जरूर था, पर देखा नहीं था. अमिताभ बच्चन एक सपना था, जो हकीकत बनकर सामने खड़ा था. लीना यादव की फिल्म “तीन पत्ती”, मुराद सिर्फ इतनी थी कि सदी के महानायक के साथ काम करने का सिर्फ एक मौका मिल जाए.
तारीख 7 अक्टूबर...सेट पर मेरा कॉल टाइम था 10 बजे...मैं ठीक समय पर पहुंच भी गया...अब साहब इंतजार था बिग बी के आने का, पता चला उनका कॉल टाइम है 2 बजे का...बस इंतजार यहीं से शुरू हुआ...लोकेशन मधुसुदन मिल...भयानक गर्मी....भीतर 15 मिनट भी रूकना नामुमकिन सा लगा-मैंने सोचा बच्चन साहब का क्या होगा...खैर बच्चन साहब ठीक 2 बजे हाजिर हुए...और रात 10 बजे तक शूटिंग करते रहे- किसी से किसी भी बात की कोई शिकायत नहीं- सिर्फ काम...मैं दंग और स्तब्ध रह गया....
तारीख 8 अक्टूबर- मेरा और बच्चन साहब के दृश्य का फिल्मांकन होना था- मेरे प्राण सूख रहे थे- पर मैं जाहिर नहीं होने देने का अभिनय कर रहा था...सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि जब बच्चन साहब सेट पर होते हैं तो सेट पर आग होती है...और बिग बी शांत मन और भाव से उस अग्निपथ पर आगे-और आगे बढ़ते जाते हैं- बिना मुड़े...
ये सब होता चला गया...9 तारीख बच्चन साहब के बुखार में बीत गई...10 तारीख को पता चला कि यारी रोड के किसी बंग्ले में शूटिंग चल रही है...मैं 4 बंगला में रहता हूं...मैं चला गया...मैं जब वहां पहुंचा तो बच्चन साहब जा रहे थे, लीना यादव और अंबिका अमित जी को बधाई दे रहे थे-मैं भी पास जाकर खड़ा हो गया- बच्चन साहब ने सभी का शुक्रिया अदा किया- और अपने खास अंदाज में हाथ हिलाकर सबसे विदा ली और जलसे की प्रतीक्षा की तरफ चल दिए...
11 अक्टूबर- उनका जन्म दिवस...प्रतीक्षा हमारे ऑफिस के रास्ते में ही पड़ता है- मजमा लगा हुआ था
ऑफिस पहुंच कर खबर मिली की....वो सभी जानते हैं....बस

अभिषेक पांडे
24 अक्टूबर, 2008


ये वो खत है जो मेरे करीबी दोस्त अभिषेक पांडे ने मुझे लिखा है...तस्वीर में बच्चन साहब के पीछे बैठे अभिषेक का नाम दर्शन भी है...कहीं गलती से अभिषेक की जगह दर्शन लिख दूं तो सोच में मत पड़िएगा कि ये दर्शन कौन है, खैर जाहिर है दर्शन उस दिन की याद ताजा कराते हुए अपना खत खत्म करते हैं- जब जन्मदिन के दिन अचानक अमिताभ के अस्पताल जाने की खबर आई थी...बच्चन साहब अब स्वस्थ हो गए हैं...ईश्वर उन्हें लंबी उम्र दे...
अब चलिए जिस सपने के सच होने की बात अभिषेक ने कही है उसकी कहानी मैं सुनाता हूं आपको...इसी 22 तारीख की बात है, अभिषेक का फोन आया...
अभिषेक से फोन पर बात होती रहती है- उन्होंने फोन करके मुझे उस तस्वीर को देखने के लिए भी कहा था जिसमें वो बच्चन साहब के साथ नजर आ रहे हैं- मैं समझ सकता हूं कि अभिषेक कितने खुश होंगे (वैसे दिलचस्प बात ये है कि अमिताभ बच्चन ही नहीं हम और अभिषेक पांडे भी इलाहाबाद के ही रहने वाले हैं)
मैं समझ सकता हूं कि अभिषेक कितना खुश होगा, बच्चन साहब के साथ काम करके...इलाहाबाद में थिएटर- फिर पंजाब विश्वविद्यालय से थिएटर का डिप्लोमा-फिर दो-तीन साल शायद ऐसे गुजरे जिसके बारे में ऐसा कुछ नहीं जिसका उल्लेख किया जाए- हॉं मुझे इतना जरूर याद है कि उन दिनों अभिषेक गांवों में रंगमंच को लेकर कुछ काम कर रहा था- काम सार्थक था- पर पेट भरने के लिए नाकाफी...मैं दिल्ली में था और अभिषेक से साल-दो साल में एकाध मुलाकात होती थी...इलाहाबाद जाने पर एलनगंज में कभी मैं उनके घर चला जाता था, कभी वो मेरे घर आकर मुझे ले जाते थे...अभिषेक ने कभी नहीं कहा कि वो अपने काम से संतुष्ट नहीं- या उन्हें आने वाले कल से डर लगता है...पर ना जाने क्यों मुझे ऐसा लगता रहा कि मंजिल अभिषेक से अभी काफी दूर है- शायद अभिषेक उस रास्ते पर अभी चला भी नहीं, जिस पर आगे जाकर उसकी मंजिल है...इस बीच एक दो बार अभिषेक दिल्ली भी आया- सिदार्थ(चौथे इलाहाबादी और मेरे बेहद करीबी दोस्त- फिलहाल मुंबई में किसी आईटी कंपनी में) के घर हम लोग बैठे- सरजूपार की मोनालीसा का पाठ हुआ (किस अंदाज में उसका जिक्र मैं पहले ही कर चुका हूं- अपने पहले संस्मरण में)...सुबह दर्शन चला जाता- और हम बैठ जाते ये सोचने कि दर्शन की मंजिल कहां है...कहीं छूट तो नहीं जाएगा ये सबकुछ...कहीं कुछ साल बाद दर्शन इलाहाबाद में खाली हाथ तो नहीं घूम रहा होगा- बीच में दर्शन की सेहत भी खराब हो गई थी- मुंह पिचका पिचका दिखता था- लगता था क्या संघर्ष करने की हिम्मत कम तो नहीं हो रही...
फिर अचानक पिछले साल अभिषेक ने फोन किया कि मैं मुंबई आ गया हूं- क्या करोगे- यही सवाल था मेरा...
जवाब दर्शन ने दे दिया डेढ़ साल के भीतर ही...मैं ये नहीं कह रहा कि बच्चन साहब के साथ काम करके अभिषेक ने करियर की मंजिल पा ली- पर आज मैं कह सकता हूं कि अब वो उस रास्ते पर है जहां आगे उसकी मंजिल भी है...
वैसे हो सकता है कि मैंने अभिषेक के संघर्ष को ज्यादा गंभीरता से ले लिया हो- क्या पता वो कभी उतना परेशान रहा ही ना हो जितना मुझे लगता था- क्या पता उसे उसकी मंजिल तब भी उतनी ही करीब और साफ दिखती हो, जितनी आज दिख रही होगी- पर उसे लेकर जो मेरे दिल का डर था वो तो अब कम से कम खत्म हो गया-और क्या चाहिए...वेल डन दर्शन

Friday, September 19, 2008

करीब 10 साल बीत गए या बीतने वाले होंगे...इलाहाबाद में थिएटर के एक मित्र अभिषेक पांडे अपने नाटक की मीटिंग के लिए घर ले गए। बोले- चलो तो सही...कुछ ही दिन बाद नाटक के स्क्रिप्ट राइटर से उनका मनभेद और मतभेद दोनों हो गया...मित्र कहने लगे कि अब फिर आना होगा (हालांकि उन दिनों मैं किसी भी तरह से उनकी मदद करने के काबिल था नहीं)...ये नाटक था लेखक अदम गोंडवी की कविता चमारों की गली पर...और इसका नाम तय हुआ था सरजूपार की मोनालीसा, दो मीटिंग के बाद ही ये हमने अभिषेक से वायदा किया कि हम नाटक देखने आएंगे, वो भी टिकट खरीद कर...हमने ऐसा किया भी। तो अदम गोंडवी की इस रचना तक मैं वाया अभिषेक पांडे पहुंचा।
कुछ साल बाद एक हिंदी चैनल में काम करने का अवसर मिला। ब्रेकफास्ट शो का जमाना था। साहित्यकारों को स्टूडियो बुलाने, उनकी कृतियों पर चर्चा करने का प्रस्ताव हमारे बॉस को पसंद आया। और शुरू हो गया साहित्यकारों को स्टूडियो में बुलाने का सिलसिला...
चैनल के एसाइनमेंट डेस्क पर एक सहयोगी एक दिन सिफारिश लेकर आए। बोले- भाई, एक कवि हैं- कोई जानता नहीं उन्हें- पर दमदार लिखते हैं, उन्हें बुलाओ कोई जुगाड़ लगाकर....मैंने नाम पूछा। बोले- अदम गोंडवी...देरी का कोई मतलब ही नहीं था। मैंने कहा- तुरंत बुलाइए। आने जाने का खर्च और तय पारिश्रमिक चैनल देगा। अदम जी नोएडा आए। चैनल के गेस्ट हाउस में रूके....फिर स्टूडियो भी आए...कविताएं सुनाईं- ग़ज़ले कहीं....
चमारों की गली अदम जी की एक ऐसी रचना है...जो हमारी मित्र मंडली में शायद ही किसी ने ना सुनी हो। अभिषेक (दर्शन) और गिरिजेश साथ हों तो फिर तो कविता का सस्वर पाठ होता है। तरीका थोड़ा निराला है- कमरे की सारी लाइटें बंद कर दी जाती हैं। सिर्फ एक साइड लैंप जलता है- कमरे में मौजूद लोगों के सामने शर्त होती है कि कविता का पाठ शुरू होने के बाद किसी का मोबाइल नहीं बजना चाहिए। बज गया- तो तोड़ दिया जाएगा। इस कविता की शुरूआती 4-6 पक्तियां जिसने भी सुनी, कहा- ये कविता चाहिए। कई दोस्तों को फोटो कॉपी मुहैया कराई। कुछ को मेल किया...फिर लगा क्यों ना इसे ब्लॉग के जरिए हर चाहने वाले तक पहुंचाने का काम करूं....
आइए महसूस करिए जिन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मरगई फुलिया बिचारी की कुएं में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालीसा
कैसी ये भयभीत है हिरनी सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी खामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
होनी से अनभिज्ञ कृष्ना बेखबर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चिख निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हंस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुट गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आखिर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पांव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे जिन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुंह काला करें
बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पांव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गंवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गांव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी´
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूंछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
था क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हॉं मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर जोर था
भोर होते ही वहां का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथमें
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
`जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने´
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुनपड़ा फिर `माल वो चोरी का तूने क्या किया´
`कैसी चोरी माल कैसा´ उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा
होशखोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
`मेरा मुंह क्या देखते हो ! इसके मुंह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूंक दो´
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहां चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुंहा बच्चा व बुड्ढा जो वहां खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे´´
कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएं नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूं कोई कहीं जाए नहीं
´´यह दरोगा जी थे मुंह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े ``इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा
इक सिपाही ने कहा ``साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें´´
बोला थानेदार ``मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर सेउलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है´´
पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
`कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल
´उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकारको
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूं आएं मेरे गांव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छांव में
गांव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहां पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !
कुछ महीनों पहले एक असफल कोशिश के बाद इस दुनिया में कदम रखने की दोबारा कोशिश