Saturday, December 5, 2009

नया ज्ञानोदय का मीडिया विशेषांक


कालिया जी के दफ्तर में बैठे बैठे एक रोज इस अंक की नींव पड़ी। मैंने बातों बातों में कहा कि ये सच है कि टीवी न्यूज इंडस्ट्री में सब कुछ सार्थक नहीं हो रहा है- पर पिछले कुछ सालों में कई खबरों ने समाज के सरोकार को ध्यान में रखा है। आज कोई भी नेता अधिकारी घूस लेने से पहले 10 बार सोचता है कि कहीं कोई स्टिंग ऑपरेशन ना चल रहा हो, प्रिंस नाम का एक बच्चा अगर गड्डे में गिरता है तो राष्ट्रपति तक को कहना पड़ता है प्रिंस को बचाना है (ये अलग बात है कि इसके बाद भी कई बच्चे गड्ढे में गिरकर मौत के मुंह में समा गए, और ये बात भी सच है कि टीवी चैनल्स पर प्रिंस की कहानी का एक बड़ा पहलू सीधे सीधे टीआरपी से जुड़ा हुआ था पर आखिर में एक बच्चे की जान भी बच गई थी, ये बात भूलनी नहीं चाहिए), जेसिका लाल हत्याकांड हो या बड़े बड़े रईसजादों की करतूतें, टीवी ने हमेशा इन घटनाओं की रिपोर्टिंग संजीदगी के साथ की है। आरूषी हत्याकांड जैसा मामला भी है, जहां टीवी अपनी जिम्मेदारियों से भटका नजर आया। लेकिन क्या सिर्फ कटघरे में खड़ा कर देने से काम चल जाएगा। क्या घर का हिस्सा बन चुके टीवी न्यूज चैनल्स को सिरे से नकार देना ठीक है। मेरी नाराजगी की बड़ी वजह मुंबई फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े वो लोग भी हैं, जो अक्सर किसी भी घटना के बाद टीवी रिपोर्टिंग पर ये इल्जाम लगा देते हैं कि टीवी ने तो फलां खबर को इंवेट बना दिया। इंवेट बना दिया कमाई के लिए, मेरा बड़ा सीधा सा सवाल है कि क्या बॉम्बे, या आंतकी घटनाओं की पृष्ठभूमि पर तैयार की जाने वाली फिल्मों में काम करने वाले कलाकार पैसे नहीं लेते। खैर, ये सारी बातें जैसे ही मैंने कहीं कालिया जी को कॉन्सेप्ट ठीक लगा और हमेशा की तरह उन्होंने तुरंत ही फैसला ले लिया कि इस अंक पर काम शुरू कर दिया जाए। मैंने कहा कि कहानियों की शक्ल में वरिष्ठ सहयोगियों से लिखवाया जाए, कालिया जी ने कहा कहानियां क्यों? संस्मरण ही रहने दो- ज्यादा बेहतर रहेगा। मैंने हामी तो भर दी, लेकिन इसके लिए टेलीविजन मीडिया के वरिष्ठ सहयोगियों से लिखवाना भी एक बड़ी चुनौती था। कालिया जी से बात करने के बाद सबसे पहले उन पत्रकारों की लिस्ट तैयारी की, जिनसे संस्मरण लिखवाना था। पूरे 8 महीने लगे, पर खुशी इस बात की है कि तकरीबन 90 फीसदी लोगों से लिखवाने में कामयाब रहा। इस अंक में टीवी मीडिया के सबसे पुराने चेहरों के संस्मरण हैं...ऐसे सहयोगियों ने भी लिखा है जिन्हें मीडिया में 10-12 साल हो गए हैं, और ऐसे साथी भी हैं, जो 5-6 साल से इस माध्यम की चुनौतियों से दो चार हो रहे हैं। जो कुछ वरिष्ठ सहयोगियों ने संस्मरण नहीं लिखे- उनका तर्क साफ था कि या तो उनके करियर में ऐसी रिपोर्ट्स हैं नहीं, जिन्हें चुनौती भरा कहा जाए और कुछ वरिष्ठ सहयोगियों का कहना था कि वो इस तरह के संस्मरण लिखकर अपना काम खत्म नहीं मान लेना चाहते। उनका संघर्ष जारी है। खैर, जिन लोगों ने नहीं लिखा-उनसे ये उम्मीद करता हूं कि वो अंक को पढ़ेंगे जरूर।
अंक में इन सभी के संस्मरण पढ़ने को मिलेंगे-
विनोद दुआ (एनडीटीवी), मनोरंजन भारती (एनडीटीवी), अलका सक्सेना (जी न्यूज), कमाल खान (एनडीटीवी), प्रबल प्रताप सिंह (आईबीएन 7), दीपक चौरसिया (स्टार न्यूज), जीतेंद्र दीक्षित (स्टार न्यूज), विजय विद्रोही (स्टार न्यूज), पंकज झा (स्टार न्यूज), सुमित अवस्थी (आजतक), शम्स ताहिर खान (आजतक), अजय कुमार (आजतक), श्रीकांत प्रत्यूष (जी न्यूज), रवीश कुमार (एनडीटीवी), स्मिता शर्मा (आईबीएन 7), ब्रजेश कुमार सिंह (स्टार न्यूज), शीला रावल (स्टार न्यूज), दिलीप तिवारी (जी न्यूज), शैलेश रंजन (जी न्यूज), शिखा चौधरी (आजतक), कादंबिनी शर्मा (एनडीटीवी), निखिल नाज (एनडीटीवी), विक्रांत गुप्ता (आजतक)

Monday, November 9, 2009

प्रभाष जी आपको स्कोर का अपडेट, सीरीज का अपडेट कहां बताना होगा? अपना नया पता, नया फोन नंबर तो बताकर जाते।


प्रभाष जी अपने जानने वालों को अक्सर एक किस्सा सुनाते थे। ईमानदार मारवाड़ी का किस्सा। कहते थे एक ईमानदार मारवाड़ी जब मरा तो उसके बहीखाते में कई किस्म का खाता था। लाभ खाता- हानि खाता- दान खाता जैसे कई खाते....पन्ने उलटने पर पता चला कि मारवाड़ी का एक व्यवहार खाता भी था। ये व्यवहार खाता था, जो मारवाडी ने एक महिला से प्यार के दौरान दिए गए उपहारों को लेकर बनाया था। जो उसके लिए लाभ हानि से कहीं ऊपर उठकर था। ठीक उसी मारवाडी की तरह प्रभाष जी का भी एक व्यवहार खाता था। और ये व्यवहार खाता था- क्रिकेट को लेकर उनका प्यार। ऐसा नहीं था कि प्रभाष जी अपने सामाजिक सरोकारों से कटे हुए थे। हॉ, पर ये सच है कि क्रिकेट उनके दिल के बेहद करीब था।
प्रभाष जी कहते थे कि एक परिवार तो वो है जिसमें ईश्वर आपको पैदा करता है, एक परिवार वो होता है- जो आप यहां अपने आप बनाते हैं। उनके निधन के बाद उनका पूरा परिवार दिखाई दिया। जितने लोग भी आए थे, आपस में हर कोई यही बात कर रहा था कि अभी कुछ ही दिन पहले बात हुई थी, अभी कुछ ही दिन पहले मुलाकात हुई थी, अभी तो फलां को फोन करके उनका हाल चाल लिया था। सचमुच, ये प्रभाष जी का पूरा परिवार था।
अभी बीती 31 तारीख की ही तो बात है। सिर्फ 6 दिन पुरानी। भारत- ऑस्ट्रेलिया की सीरीज का तीसरा मैच दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में था। मैं मैच को कवर कर रहा था। ऑस्ट्रेलिया की पारी खत्म होने के बाद प्रेस बॉक्स के पीछे के हिस्से से निकला तो देखा प्रभाष जी किसी से बातचीत करके आ रहे हैं। मैं उनसे मिलने गया। पैर छुए और वो मेरे कंधे पर हाथ टिका कर खड़े हो गए। कहने लगे 230 का टारगेट है, ट्रिकी है थोड़ा। देखो कैसी शुरूआत होती है...फिर वो अपनी सीट पर चले गए। जैसे ही 51 रन पर सचिन का विकेट गिरा, मैं फिर बाहर आ गया, थोड़ी देर बाद प्रभाष जी भी आ गए। इस बार तसल्ली से बात हुई, फिर मेरे कंधे पर हाथ टिकाए, बोले- इस तरह की पिच पर सीधे बल्ले से ही रन बनते हैं। आड़े तिरछे बल्ले से शॉट मारा तो पवेलियन लौटना तय है। सचिन के रनआउट होने पर ना तो वो कुछ बोले ना ही मैंने कुछ पूछा। इसके बाद प्रभाष जी मुझे अपनी पिछली इलाहाबाद यात्राओं के बारे में बताने लगे। सामने कॉमेंट्री बॉक्स में सुनील गावस्कर बैठे हुए थे। प्रभाष जी उनसे मिलने गए, 2-3 मिनट बातचीत की, तब तक गावस्कर के पास कुछ और लोग पहुंच चुके थे। ऐसे लोग जो इस खेल के बिजनेस से जुड़े लोग हैं। ठीक 10-15 सेकंड के भीतर प्रभाष जी वापस अपनी कुर्सी पर लौट गए। शुक्र है कि भारतीय टीम उस मैच को जीत गई, लेकिन फिर मोहाली में हार और हैदराबाद में जीते हुए मैच में हार ने प्रभाष जी के दिल को चोट जरूर पहुंचाई होगी। आज उनके अंतिम दर्शन के लिए जुटे लोगों में से किसी ने मुझे बताया कि कोटला वाले मैच के लिए वो करीब एक घंटे की देरी से पहुंचे थे, और इस देरी के लिए वो खुद से नाराज थे।
जितने बरस से मैं क्रिकेट कवर कर रहा हूं, उतने बरस में लगभग हर मैच में कोटला के प्रेसबॉक्स में उनसे मुलाकात हुई। प्रभाष जी सफेद कुर्ता-धोती में कोने की सीट में मैच पर बारीक नजर बनाए हुए। उनके साथ टीवी पर मैच देखने का कभी मौका नहीं मिला- पर जो लोग उनके साथ टीवी पर मैच देखने का लुत्फ उठा चुके हैं, बताते हैं कि वो चौके-छक्के पर बच्चों की तरह खुश हो जाते थे, कोई खिलाड़ी गलत शॉट खेलकर आउट हो जाए तो उन्हें काफी देर तक मुंह फुलाए नाराज देखा जा सकता था। किसी बड़ी सीरीज से पहले टीवी सेट के दुरूस्त होने की जानकारी वो ले लिया करते थे। कभी संगोष्ठी में बोलने गए हैं- या किसी अन्य कार्यक्रम में, अगर कोई क्रिकेट मैच चल रहा है तो बीच बीच में स्कोर अपडेट लेते रहते थे। जो लोग उनके इस शौक से वाकिफ थे उन्हें खुद ही जाकर स्कोर बता देते थे, प्रभाष जी मुस्करा देते थे। प्रभाष जी सचिन तेंडुलकर के सबसे बड़े प्रशंसको में से एक रहे। सचिन पर जब जब किसी ने हमला बोला, ज्यादातर मौकों पर अगले ही जिन जनसत्ता के पहले पन्ने पर बॉटम में प्रभाष जी का ऐसा लेख पढ़ने को मिला जो सचिन की महानता को बताता था। हम सबको छोड़कर जाने से पहले भी प्रभाष जी ने अपने पसंदीदा खिलाड़ी की बेहतरीन पारियों में से एक पारी देखी, पर साथ ही टीम की हार भी देखी...दिल दुखा होगा उनका। प्रभाष जी सीरीज में कंगारु 3-2 से आगे निकल गए हैं...सीरीज जीतने के लिए अगले 2 मैच जीतने होंगे भारत को...प्रभाष जी आपको स्कोर का अपडेट, सीरीज का अपडेट कहां बताना होगा। अपना नया पता, नया फोन नंबर तो बताकर जाते।

(प्रभाष जी पर ये संस्मरण उनके हमें छोड़ कर जाने के तुरंत बाद लिखा था, पहले सोचा था कि इसे ब्लॉग पर नहीं डालूंगा फिर आज पता नहीं क्यों ऐसा लगा कि इसे भी ब्लॉग पर डाल देना चाहिए)

टीवी मीडिया विशेषांक


टीवी की नौकरी के दबाव में निकाले गए थोड़े थोड़े वक्त को जोड़कर की गई मेहनत के बाद टीवी मीडिया विशेषांक की तैयारी पूरी हो चुकी है। भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक साहित्यिक पत्रिका 'नया ज्ञानोदय' का ये मीडिया विशेषांक है और जनवरी 2010के इस अंक में आपको ये संस्मरण पढ़ने को मिलेंगे। अंक में हिंदी टीवी पत्रकारिता से जुड़े तकरीबन 2 दर्जन संवाददाता, अपनी सबसे कठिन रिपोर्ट के संस्मरण से पाठकों को वाकिफ कराएंगे। मीडिया विशेषांक का विज्ञापन प्रकाशित होना शुरू हो गया है।

Monday, October 26, 2009

तुम लिखो पापा...


पिछले 4-5 महीने से कुछ भी लिखने का वक्त नहीं मिला, हिम्मत भी नहीं थी...बिटिया ने इतनी ताकत दी कि फिर कम से कम कुछ तो लिखने का मन किया...लाइनें अब आपके सामने हैं-



एक रोज शिवी हाथ में पेंसिल लेकर आई
दूसरे हाथ में एक पैड भी था
बोली- पापा लिखो,
मैंने पैड ले लिया, पेंसिल भी
पूछा- क्या लिखूं बेटा
बोली लिखो- शिप्रा मॉल
फिर...?
लिखो-शिवी
फिर...?
लिखो पल्लवी*
फिर...?
लिखो चीकू*
फिर...?
लिखो पापा
फिर...?
लिखो- डॉली की बारी आ गई
फिर...?
लिखो इसमें मजा है
फिर...?
लिखो झूला
फिर शिवी चुप हुई
बोली- हम लिखेंगे झूला
कागज पर कुछ आड़ी तिरछी लाइनें खींचने के बाद बोली
इसमें मजा है...
बिस्तर से उतरी, घूम फिरकर लौटी
देर तक, छोटे से घर में दूर तक
चिल्लाती रही- इमसें मजा है
लौटी बोली
पापा लिखो
मैंने पूछा क्या
लिखो ओलंपिक...
भगवान जाने
छोटी सी बिटिया के दिमाग में क्या क्या चलता रहता है?


(पल्लवी*- मेरी पत्नी का नाम
चीकू*- शिवी को चीकू कहलाना बहुत अच्छा लगता है)

Saturday, July 11, 2009

मुझे वोट दीजिए

तो लीजिए साहब, हम भी एक प्रतियोगिता में हिस्सा ले रहे हैं, घूमना-फिरना-इनाम वगैरह का लालच तो है ही, एक और बात दिमाग में आई है, इसे वोट बटोरने का हथकंडा कत्तई ना समझे...शायद आपको याद भी होगा कि इसी ब्ल़ॉग में कुछ महीनों पहले मैने अपनी चीन की एक रिपोर्ट पोस्ट की थी...रिपोर्ट कहूं या रिपोर्ताज- चलिए जो आप ठीक समझे...शारीरिक चुनौतियों का सामना कर रहे बच्चों पर थी वो रिपोर्ट- अब मौका है कि उन बच्चों के काम को, उनकी हिम्मत को लोगों तक पहुंचाया जाए- इस प्रतियोगिता में जीत इस मकसद को पूरा करने में मदद कर सकती है.तो आप अगर उचित समझें तो इस लिंक को क्लिक करिए, वोट डालिए और उसके बाद आपके ई-मेल में एक लिंक आएगा, उसे क्लिक करके वोट को कन्फर्म कीजिए,
http://www.greatdrivingchallenge.com/application/Shivendra/