Tuesday, December 7, 2010

अलविदा स्वस्तिका....

2 साल की स्वस्तिका नहीं रही। सिर्फ 2 साल की स्वस्तिका। मां की गोद में चिपककर घाट पर आरती सुनने गई थी, मां ने सोचा होगा बिटिया में संस्कार आएंगे। जन्मदिन भी था शायद उसका। धमाका हुआ तो अपनी मां की गोद से छिटककर गिरी और फिर गंगा मां की गोद में चली गई।
गृह मंत्री पी चिंदबरम घटनास्थल पर पहुंचे। स्वस्तिका के पिता से बातचीत की। उन्हें ढांढ़स बंधाया। स्वस्तिका के पिता से कहा गया कि उन्हें उनकी बिटिया की पोस्टमार्टम रिपोर्ट दे दी जाएगी। क्या होगा उस पोस्टमार्टम रिपोर्ट का? मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाने के काम आएगी। सरकारी मदद लेने के काम आएगी या फिर जाने किस काम आएगी पोस्टमार्टम रिपोर्ट...
स्वस्तिका के पिता अध्यापक हैं। आरती के दौरान धमाका हुआ है उस वक्त वो बच्चों को पढ़ा रहे थे- जब तक भागकर अस्पताल पहुंचते नन्हीं बच्ची दम तोड़ चुकी थी, जिंदगी ने स्वस्तिका के पिता को एक नया पाठ पढ़ाया था।
2 साल की मासूम स्वस्तिका ने अभी हाल ही में साफ बोलना शुरू किया होगा, चाल में एक रफ्तार आई होगी। रफ्तार से ज्यादा विश्वास कि अब मैं गिरूंगी नहीं...पर धमाके की गूंज ने उसके विश्वास को मात दे दी।
अभी तो स्वस्तिका के मां-बाप ने ये सोचना शुरू ही किया होगा कि बिटिया बड़ी हो रही है- उसका ज्यादा ख्याल रखना होगा। ठंढ़ के दिन है उसे सर्दी से बचाना होगा। मां के पास अगर वक्त होगा तो शायद स्वेटर बुनने में भी लग गई होगी। दादी-नानी रोज नए नुस्खे बताती होंगी कि छोटे बच्चों को ठंढ़ से कैसे बचाया जाता है। पर अब तो कलेजा ही ठंढ़ा हो गया।
मां-बाप बच्चे के गोद में आते ही सपने देखने लगते हैं। स्वस्तिका के मां बाप ने भी जरूर देखे होंगे सपने...डॉक्टर बनाएंगे-इंजीनियर बनाएंगे...नहीं नहीं इसकी उंगलियां लंबी है आर्टिस्ट बनेगी। अब घर में उसकी तस्वीर लगाने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते स्वस्तिका के मां-बाप।

Monday, September 20, 2010

जीत के हकदार गिरीजेश को वोट दें, प्लीज...

मित्रों,मेरे बेहद करीबी दोस्त गिरिजेश की तरफ से ये वोट अपील है। कृपया वोट दें- मैं इस बात की गारंटी लेता हूं कि वो जीत के हकदार हैं। उन्हें आपका वोट चाहिए। दरअसल रेडियोसिटी 91.10 FM पर चल रहा है - सिटी का सुपर सिंगर। करीब 10,000 प्रतियोगियों और कई राउंड्स की चुनौती पास करते हुए गिरिजेश FINAL-5 में पहुंच गए हैं, उन्हें आपका वोट चाहिए.
मोबाइल पर टाइप कीजिए SINGER स्पेस दीजिए और लि़खिए 02
इसे 57007 पर भेज दीजिए।
वोटिंग बेहद अहम है

Saturday, May 8, 2010

काबुलीवाला

(रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानी)
मेरी पाँच बरस की लड़की मिनी से घड़ीभर भी बोले बिना नहीं रहा जाता। एक दिन वह सवेरे-सवेरे ही बोली, "बाबूजी, रामदयाल दरबान है न, वह ‘काक’ को ‘कौआ’ कहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी।" मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने दूसरी बात छेड़ दी। "देखो, बाबूजी, भोला कहता है – आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ बोलता है, है न?" और फिर वह खेल में लग गई।

मेरा घर सड़क के किनारे है। एक दिन मिनी मेरे कमरे में खेल रही थी। अचानक वह खेल छोड़कर खिड़की के पास दौड़ी गई और बड़े ज़ोर से चिल्लाने लगी, "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!"

कँधे पर मेवों की झोली लटकाए, हाथ में अँगूर की पिटारी लिए एक लंबा सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। जैसे ही वह मकान की ओर आने लगा, मिनी जान लेकर भीतर भाग गई। उसे डर लगा कि कहीं वह उसे पकड़ न ले जाए। उसके मन में यह बात बैठ गई थी कि काबुलीवाले की झोली के अंदर तलाश करने पर उस जैसे और भी
दो-चार बच्चे मिल सकते हैं।

काबुली ने मुसकराते हुए मुझे सलाम किया। मैंने उससे कुछ सौदा खरीदा। फिर वह बोला, "बाबू साहब, आप की लड़की कहाँ गई?"

मैंने मिनी के मन से डर दूर करने के लिए उसे बुलवा लिया। काबुली ने झोली से किशमिश और बादाम निकालकर मिनी को देना चाहा पर उसने कुछ न लिया। डरकर वह मेरे घुटनों से चिपट गई। काबुली से उसका पहला परिचय इस तरह हुआ। कुछ दिन बाद, किसी ज़रुरी काम से मैं बाहर जा रहा था। देखा कि मिनी काबुली से खूब बातें कर रही है और काबुली मुसकराता हुआ सुन रहा है। मिनी की झोली बादाम-किशमिश से भरी हुई थी। मैंने काबुली को अठन्नी देते हुए कहा, "इसे यह सब क्यों दे दिया? अब मत देना।" फिर मैं बाहर चला गया।

कुछ देर तक काबुली मिनी से बातें करता रहा। जाते समय वह अठन्नी मिनी की झोली में डालता गया। जब मैं घर लौटा तो देखा कि मिनी की माँ काबुली से अठन्नी लेने के कारण उस पर खूब गुस्सा हो रही है।

काबुली प्रतिदिन आता रहा। उसने किशमिश बादाम दे-देकर मिनी के छोटे से ह्रदय पर काफ़ी अधिकार जमा लिया था। दोनों में बहुत-बहुत बातें होतीं और वे खूब हँसते। रहमत काबुली को देखते ही मेरी लड़की हँसती हुई पूछती, "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले! तुम्हारी झोली में क्या है?"

रहमत हँसता हुआ कहता, "हाथी।" फिर वह मिनी से कहता, "तुम ससुराल कब जाओगी?"

इस पर उलटे वह रहमत से पूछती, "तुम ससुराल कब जाओगे?"

रहमत अपना मोटा घूँसा तानकर कहता, "हम ससुर को मारेगा।" इस पर मिनी खूब हँसती।

हर साल सरदियों के अंत में काबुली अपने देश चला जाता। जाने से पहले वह सब लोगों से पैसा वसूल करने में लगा रहता। उसे घर-घर घूमना पड़ता, मगर फिर भी प्रतिदिन वह मिनी से एक बार मिल जाता।

एक दिन सवेरे मैं अपने कमरे में बैठा कुछ काम कर रहा था। ठीक उसी समय सड़क पर बड़े ज़ोर का शोर सुनाई दिया। देखा तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। रहमत के कुर्ते पर खून के दाग हैं और सिपाही के हाथ में खून से सना हुआ छुरा।

कुछ सिपाही से और कुछ रहमत के मुँह से सुना कि हमारे पड़ोस में रहने वाले एक आदमी ने रहमत से एक चादर खरीदी। उसके कुछ रुपए उस पर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने इनकार कर दिया था। बस, इसी पर दोनों में बात बढ़ गई, और काबुली ने उसे छुरा मार दिया।

इतने में "काबुलीवाले, काबुलीवाले", कहती हुई मिनी घर से निकल आई। रहमत का चेहरा क्षणभर के लिए खिल उठा। मिनी ने आते ही पूछा, ‘’तुम ससुराल जाओगे?" रहमत ने हँसकर कहा, "हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।"

रहमत को लगा कि मिनी उसके उत्तर से प्रसन्न नहीं हुई। तब उसने घूँसा दिखाकर कहा, "ससुर को मारता पर क्या करुँ, हाथ बँधे हुए हैं।"

छुरा चलाने के अपराध में रहमत को कई साल की सज़ा हो गई।

काबुली का ख्याल धीरे-धीरे मेरे मन से बिलकुल उतर गया और मिनी भी उसे भूल गई।

कई साल बीत गए।

आज मेरी मिनी का विवाह है। लोग आ-जा रहे हैं। मैं अपने कमरे में बैठा हुआ खर्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत सलाम करके एक ओर खड़ा हो गया।

पहले तो मैं उसे पहचान ही न सका। उसके पास न तो झोली थी और न चेहरे पर पहले जैसी खुशी। अंत में उसकी ओर ध्यान से देखकर पहचाना कि यह तो रहमत है।

मैंने पूछा, "क्यों रहमत कब आए?"

"कल ही शाम को जेल से छूटा हूँ," उसने बताया।

मैंने उससे कहा, "आज हमारे घर में एक जरुरी काम है, मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ, फिर आना।"

वह उदास होकर जाने लगा। दरवाजे़ के पास रुककर बोला, "ज़रा बच्ची को नहीं देख सकता?"

शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब भी वैसी ही बच्ची बनी हुई है। वह अब भी पहले की तरह "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले" चिल्लाती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों की उस पुरानी हँसी और बातचीत में किसी तरह की रुकावट न होगी। मैंने कहा, "आज घर में बहुत काम है। आज उससे मिलना न हो सकेगा।"

वह कुछ उदास हो गया और सलाम करके दरवाज़े से बाहर निकल गया।

मैं सोच ही रहा था कि उसे वापस बुलाऊँ। इतने मे वह स्वयं ही लौट आया और बोला, “'यह थोड़ा सा मेवा बच्ची के लिए लाया था। उसको दे दीजिएगा।“

मैने उसे पैसे देने चाहे पर उसने कहा, 'आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब! पैसे रहने दीजिए।' फिर ज़रा ठहरकर बोला, “आपकी जैसी मेरी भी एक बेटी हैं। मैं उसकी याद कर-करके आपकी बच्ची के लिए थोड़ा-सा मेवा ले आया करता हूँ। मैं यहाँ सौदा बेचने नहीं आता।“

उसने अपने कुरते की जेब में हाथ डालकर एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकला औऱ बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनो हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया। देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हें से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप हैं। हाथ में थोड़ी-सी कालिख लगाकर, कागज़ पर उसी की छाप ले ली गई थी। अपनी बेटी इस याद को छाती से लगाकर, रहमत हर साल कलकत्ते के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है।

देखकर मेरी आँखें भर आईं। सबकुछ भूलकर मैने उसी समय मिनी को बाहर बुलाया। विवाह की पूरी पोशाक और गहनें पहने मिनी शरम से सिकुड़ी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।

उसे देखकर रहमत काबुली पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में वह हँसते हुए बोला, “लल्ली! सास के घर जा रही हैं क्या?”

मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी। मारे शरम के उसका मुँह लाल हो उठा।

मिनी के चले जाने पर एक गहरी साँस भरकर रहमत ज़मीन पर बैठ गया। उसकी समझ में यह बात एकाएक स्पष्ट हो उठी कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? वह उसकी याद में खो गया।
मैने कुछ रुपए निकालकर उसके हाथ में रख दिए और कहा, “रहमत! तुम अपनी बेटी के पास देश चले जाओ।“

Monday, March 29, 2010

सरजूपार की मोनालीसा: जाने क्यों वो गुल्लक आजकल मुझे घूरता रहता है

सरजूपार की मोनालीसा: जाने क्यों वो गुल्लक आजकल मुझे घूरता रहता है

जाने क्यों वो गुल्लक आजकल मुझे घूरता रहता है




जाने क्यों आजकल हर घर से बहुत शोर आता है
धब-धब-धब की आवाजें,
लगता है छत पर कोई कूद रहा है
चीखना चिल्लाना, रोना-गाना
लगता है “कुछ” हो गया

जाने क्यों आजकल सूरज भी अकड़ा हुआ है
नाराज है शायद मुझसे
सबसे पहले जगाने के लिए मुझे ही आ जाता है
मैं रात चाहे कितनी देर से सोया हूं
सुबह सबसे पहले जग जाता हूं
अपने आस-पड़ोस में सबसे पहले
बाहर निकलकर देखता हूं
तो इक्का दुक्का लोग नजर आते हैं

जाने क्यों आजकल दूसरों की बालकनी पर
कुछ ज्यादा ही सूखते कपड़े दिखते हैं मुझे
तमाम कपड़े, एक के ऊपर एक
गजे हुए से...एक दूसरे से चिपके हुए
रंग बिरंगी क्लिपों के साथ अटके हुए से

जाने क्यों आजकल मेरे घर में खाना बनाने वाला
बड़े ‘एटीट्यूड’ में रहता है
लगता है किसी पांच सितारा होटल का कुक हो
बहुत बिजी, काफी प्रोफेशनल
आता है-खाना बनाता है-चला जाता है
बात करने का टाइम ही नहीं है उसके पास

जाने क्यों आजकल मेरे बेडरूम की घड़ी
बहुत जोर जोर से आवाज करने लगी है
लगता है जानबूझकर परेशान कर रही हो
घड़ी, घड़ी की तरह नहीं
घड़ियाल की तरह बजती है
टक...टक...टक....टक
या तो इसे ठीक कराना होगा या फिर नई घड़ी खरीदूंगा

जाने क्यों आजकल घर की दीवारें एकदम बेरंग दिखती हैं
कहने को लाल-नीले-हल्के नारंगी रंग से रंगी पुती हैं
पर जाने क्यों उन रंगों में जान नहीं रही
कभी कभी तो मन करता है
कि इन पर दोबारा रंग करवा दूं

जाने क्यों आजकल बातों बातों में
आंखें गीली हो जाती हैं
कोई जीत जाए तो आंसू आ जाते हैं
कोई हार जाए तो आंसू आ जाते हैं
छिपाने पड़ते हैं अपने आंसू
लोग क्या कहेंगे, क्या सोचेंगे मेरे बारे में…

जाने क्यों वो गुल्लक आजकल मुझे घूरता रहता है
करीब 2 महीने पहले खरीदा था
90 फीसदी से ज्यादा भर भी गया है
पर पिछले एक हफ्ते से उसमें
एक रूपया तक नहीं पड़ा
क्या करूं घर लौटने पर सिक्का बचता ही नहीं जेब में
जाने क्यों...जाने क्यों...


(पिछले एक हफ्ते से शिवी इलाहाबाद में है और मैं गाजियाबाद में-अभी आधे घंटे पहले ही पता चला है कि जब वो लौटेगी तो मैं चेन्नई जा चुका रहूंगा...)

Wednesday, March 24, 2010

भारत में पहली बार


भारत में पहली बार साइन लैंग्वेज में डच फिल्मकारों की तरफ से 5 शॉर्ट फिल्मों को देखने का मौका- साधो का एक और खास कार्यक्रम।

Monday, March 22, 2010

सवालों की बौछार






एक रोज शिवी ने सवालों की बौछार कर दी
ये क्या है-वो क्या है...
ये गुल्लक है...
ये पित्ज़ा...
ये बप्पा जी हैं...
ये प्रिंटर है...
और ये इरेज़र है...
शिवी का अगला सवाल था
इरेज़र क्या होता है,
मैंने कहा
जब लिखते वक्त कोई
गलती हो जाती है
तो इरेज़र से उसे मिटा देते हैं,
शिवी बोली- मिटाकर दिखाओ,
उसे दिखाने के लिए
पहले पन्ने पर आड़ी तिरछी लाइनें खींची
फिर उन्हें मिटा कर दिखाया
खुश हो गई शिवी, बहुत खुश
मैं मन ही मन सोच रहा था
मेरी लाड़ली
काश! तूझे जिंदगी में
इरेज़र की जरूरत ही ना पड़े

(शिवी दो साल 6 महीने की हो गई है,19 तारीख को उसका मुंडन हुआ है...इस पोस्ट के साथ लगाई गई तस्वीर मुंडन से थोड़ी देर पहले की है...मुंडन के बाद की तस्वीरें भी जल्दी ही पोस्ट करूंगा। ये तस्वीरें इलाहाबाद में रहने वाले मेरे पुराने मित्र और बेहतरीन फोटोग्राफर कमल किशोर कमल ने खींची हैं।)

Tuesday, February 23, 2010

An Invitation For Music Lovers


This is a concert organized in the memory of my Ustadji's father Ustad Ashique Ali Khan.Please do come and enjoy the music !!!

SARANGI NAWAZ USTAD ASHIQUE ALI KHAN MUSIC & AWARD CEREMONY

VENUE: KAMANI AUDITORIUM MANDI HOUSE ON Feb 25,2010 7 PM Onwards

PERFORMERS:
1.Pt. Madhup Mudgal (Vocal)
2.Abhay Rustum Sopori (Santoor)
3.Lokesh Anand (Shehnai)

AWARDS
Pt. BHAJAN SOPORI (SANGEET BHUSHAN AWARD)
USTAD FAIYAZ KHAN(TAAL SAMRAT AWARD)
SHRI MURAD ALI KHAN (SARANGI RATNA)
SHRI LOKESH ANAND (SHEHNAI RATNA

Monday, February 15, 2010

शिवी और शहंशाह





एक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल
खूब सुनी थीं ये लाइनें
बीते साल की आखिरी तारीख
यानी 31 दिसंबर को
हम आगरा में थे...
शिवी* ने ताजमहल देखा
और कुछ तो वो याद कर सकती नहीं
किसने बनवाया, क्यूं बनवाया
किसके लिए बनवाया
ये सब वो जानकर करेगी भी क्या...
हां पर, ताज का गुंबद उसके दिमाग में बैठ गया
उसके बाद गुंबद वाली हर इमारत
शिवी के लिए ताजमहल है...ताजमहल
पिछले कोई दो महीने में
कुछ दो-तीन दर्जन ताजमहल
तो सिर्फ दिल्ली में दिखा चुकी है मुझे
बड़ी होगी तो बताउंगा उसे कि
ताजमहल सिर्फ एक है
आगरा में...
लेकिन तब तक
शहंशाह का गुमान टूटता है, तो टूटता रहे....

(शिवी मेरी बेटी का नाम है, जिसकी उम्र दो साल और चार महीने है)

Friday, February 5, 2010

इसे विज्ञापन कतई ना समझे....


28 साल की रश्मि की पहली किताब, वो भी रूपा पब्लिकेशन से... इस पर तो चर्चा होनी ही चाहिए, चर्चा इसलिए होनी चाहिए क्योंकि मीडिया मौजूदा वक्त के सबसे चर्चित विषयों में शुमार है। इतना चर्चित कि सदी के महानायक अमिताभ बच्चन तक मीडिया पर बनी फिल्म में काम कर रहे हैं।
खैर, रश्मि की किताब पर लौटते हैं, रूपा पब्लिकेशन ने इस किताब को प्रकाशित किया है, ये इस बात का सबूत है कि इतने बड़े पब्लिकेशन हाउस को 28 साल की रश्मि की किताब के प्लॉट में बाजार नजर आता है। बाजार नजर आता है न्यूज रूम की उन गतिविधियों को पाठकों तक पहुंचाने में, जो हर रोज अखबार पढ़ते हैं- उनकी दिलचस्पी ये जानने में है कि जिस खबर को लिखने वाले पत्रकार को वो पढ़ते हैं, उसकी कहानी क्या है।
मैं रश्मि को कैसे जानता हूं, इसका एक किस्सा है। आईपीएल का दूसरा सीजन था। हम दक्षिण अफ्रीका में मैचों की कवरेज कर रहे थे। इसी दौरान करीबी दोस्त विवेक ने बताया कि उसकी एक दोस्त अपनी पहली किताब लिख रही है।
मुझे उर्दू के मशहूर शायर अहमद फराज की दी गई सलाह याद आ गई कि बरखुरदार जिंदगी में दो काम खूब सोच समझ कर करना- पहला शादी और दूसरा पहली किताब का लेखन।
अब कई बार लगता है कि शादी में तो देरी नहीं की लेकिन ज्यादा सोचने समझने लगा और इसी में किताब लिखने में देरी होती गई। मैंने 2003 में 25-26 साल की उम्र में ही शादी कर ली थी, पर उस वक्त से लाख सोचने के बावजूद किताब आज तक नहीं लिख पाया।
अरे, मैं ये क्या क्या लिखने लगा, इसे ही कहते हैं विषय से भटकना। तो विषय पर वापस लौटता हूं, तो रश्मि को वाया विवेक जानने के बाद इस बात का इंतजार कर रहा था कि उनकी किताब आए तो जरा देखूं कि कम उम्र में किताब लिखने का क्या कोई नुकसान भी है...
आप भी तो मानेंगे ना कि भाई जो मीडिया में काम करने वाले ज्यादातर लोग नहीं कर पाए वो रश्मि ने कर दिखाया है। उन्हें दाद दी जानी चाहिए, और दाद देने का सबसे आसान तरीका है उनकी किताब को पढकर उन्हें फीडबैक देना।

नया ज्ञानोदय में प्रकाशित मेरा संस्मरण



इस संस्मरण को मैंने दो हिस्सों में लिखा है। मेरी चुनौती की दो शक्लें हैं- पहली भावनात्मक चुनौती और दूसरी पेशे की चुनौती। मैंने 2004 से लेकर अगले दो साल में 4 पाकिस्तान दौरे किए हैं, पाकिस्तान के तमाम रास्ते, तमाम गलियां मुझे याद हैं। पाकिस्तान में कुछ दुकानें ऐसी हैं, जहां मेरा “उधार” चलता था। कई ऑटो वाले फुटकर ना होने की सूरत में ये कहकर चले जाते थे कि अगली बार दे देना मियां। संस्मरण का दूसरा हिस्सा पेशेवर चुनौतियों का हैं, और पहला हिस्सा उन चुनौतियां का, जो तब तक यूं ही बनी रहेंगी, जब तक पाकिस्तान का पांचवां दौरा करने का मौका ना मिल जाए। खैर, जाने माने गीतकार और अभिनेता पीयूष मिश्र से माफी मांगते हुए (उनसे इजाजत नहीं ले पाया) उनकी कुछ लाइनें-
लाहौर के उस पहले जिले के,
दो परगना में पहुंचे,
रेशम गली के दूजे कूचे के,
चौथे मकां में पहुंचे,
कहते हैं जिसको दूजा मुल्क,
उस पाकिस्तान में पहुंचे,
लिखता हूं खत मैं हिंदुस्तां से
पहलु-ए-हुस्ना में पहुंचे,
ओ हुस्ना...
मैं तो हूं बैठा,
ओ हुस्ना मेरी, यादों पुरानी में खोया,
पल पल को गिनता
पल पल को चुनता
बीती कहानी में खोया
पत्ते जब झड़ते हिंदुस्तां में
बातें तुम्हारी ये बोलें
होता उजाला जब हिंदुस्तां में
यादें तुम्हारी ये बोलें
ओ हुस्ना मेरी ये तो बता दो
होता है ऐसा क्या उस गुलिस्तां में
रहती हो नन्ही कबूतर सी गुम तुम जहां
ओ हुस्ना...
पत्ते क्या झड़ते हैं पाकिस्तान में वैसे ही
जैसे झड़ते यहां
ओ हुस्ना...
होता उजाला क्या वैसा ही है
जैसा होता है हिंदुस्तां में...हां
ओ हुस्ना...
वो हीर के रांझों, के नगमें मुझको
हर पल आ आके सताएं
वो बुल्ले शाह की तकरीरों के
झीने झीने से साए
वो ईद की ईदी, लंबी नमाजें, सेवइयों की झालर
वो दीवाली के दिए, संग में बैसाखी के बादल
होली की वो लकड़ी जिसमें
संग संग आंच लगाई
लोहड़ी का वो धुंआ जिसमें
धड़कन है सुलगाई
ओ हुस्ना मेरी
ये तो बता दो
लोहड़ी का धुआं क्या अब भी निकलता है
जैसे निकलता था, उस दौर में हां... वहां
ओ हुस्ना
हीरों के रांझों के नगमे
क्या अब भी सुने जाते हैं वहां
ओ हुस्ना
रोता है रातों में पाकिस्तान क्या वैसे ही
जैसे हिंदुस्तान
ओ हुस्ना
पत्ते क्या झड़ते हैं क्या वैसे ही
जैसे कि झड़ते यहां
होता उजाला क्या वैसे ही
जैसा होता ही हिंदुस्तां में...हां
ओ हुस्ना...
पीयूष भाई की ये लाइनें जब पहली बार सुनी थीं तो रोंगटे खड़े हो गए थे। आज करीब 8-9 साल बाद जब दोबारा मुंबई में अपने एक दोस्त हनी त्रेहान से इन लाइनों को फोन पर नोट किया तो एक बार फिर रोंगटे खड़े हो गए। पता चला कि पीयूष भाई अस्पताल में हैं, इसलिए उन्हें फोन करके परेशान ना करने का फैसला किया और सोच लिया कि चुनौतियों से भरे अपने संस्मरण की शुरूआत इन्हीं लाइनों से करूंगा। इन्हीं लाइनों से इसलिए क्योंकि पाकिस्तान और भारत में जिस तरह के ताजा हालात हैं, उसमें अब हाल फिलहाल पाकिस्तान जाना मुमकिन नहीं दिखता। दूसरी बड़ी बात ये भी है कि जिस तरह से आतंकवाद ने पाकिस्तान के तमाम शहरों को अपनी चपेट में ले रखा है उससे वहां जाने की हिम्मत जुटाना भी आसान नहीं होगा। 2004 से लेकर 2006 के बीच जो 4 पाकिस्तान दौरे किए उसमें कोई “हुस्ना” तो नहीं मिली...लेकिन रिश्तों की गहराइयों के लिहाज से कई ऐसे मां-बाप-दोस्त-भाई और बहनें मिलीं जिनका पूरा पता मेरे पास नहीं। कईयों के टेलीफोन नंबर तक नहीं...और कुछ के बस चेहरे भर याद हैं-उनके नाम तक याद नहीं। हालात दिन-ब-दिन खराब होते जा रहे हैं और सुधार के आसार भी नजर नहीं आते। इसीलिए मेरी हालत पीयूष भाई की कविता के उस नायक की तरह ही है, जो अपनी हुस्ना को ढूंढ रहा है...और मैं उस “हुस्ना” के बहाने अपनी जान पहचान के कई चेहरों को....
करीब 6 साल होने वाले हैं। जब पहली बार पाकिस्तान के दौरे पर गया था। क्रिकेट सीरीज कवर करने। बड़ी अहम सीरीज थी वो, भारतीय टीम 14 साल बाद पाकिस्तान का दौरा कर रही थी। उस दौरे के लिए लाहौर पहुंचने के बाद से लेकर घर वापस लौटने तक हर मिनट एक चुनौती की तरह था। वीजा की चुनौती, स्टोरीज की चुनौती और भी ऐसी कई चुनौतियां जो शायद लिखी नहीं जा सकतीं, उन्हें वहां जाने पर सिर्फ महसूस किया जा सकता है। खैर, उसके बाद 4 बार पाकिस्तान गया। हर बार पाकिस्तान का एक नया चेहरा देखा, और यकीन मानिए मेरे लिए अब भी उन्हीं चेहरों को भूलने की चुनौती है। जिन्हें मैं भूल नहीं सकता।
लाहौर में धमाका, रावलपिंडी में धमाका, पेशावर में धमाका, कराची में धमाका, मुल्तान में धमाका, इस्लामाबाद में धमाका...बेनजीर भुट्टो की हत्या, श्रीलंका की क्रिकेट टीम पर दिन दहाड़े हमला...आए दिन होने वाली आंतकी घटनाएं, आए दिन मरते बेगुनाह, आए दिन बिछड़ते लोग, आए दिन मरती इंसानियत। क्या हो रहा है ये और क्यों हो रहा है ये...इस पर तो पूरी दुनिया की निगाहें हैं...पर मेरी निगाहें हैं अपने उन दोस्तों की खैरियत जानने में, जो पिछले 4 दौरों में मुझे मिले। मेरे दोस्त बने। आज कुछ के नंबर मेरे पास हैं, कुछ के नहीं। कैसे पता करूं उनकी खैरियत, जिनके नंबर मेरे पास नहीं हैं। कुछ की तस्वीरें भी मेरे पास हैं, पर वो कहां है...नहीं मालूम।
लाहौर के कलमा चौक पर जो मिनी गॉल्फ क्लब है, उसके रजा भाई कैसे हैं? कराची में वो जो टैक्सी वाला हमें बीच घुमाने ले गया था, वो कैसा है? मुल्तान में स्टेडियम के बाहर खड़ा वो रिक्शा वाला जिसने ये जानने के बाद कि हम हिंदुस्तान के हैं- हमसे पैसे नहीं लिए। पेशावर में शाहरूख खान के नाम की कसम खाने वाला हमारा होटल वाला कैसा हैं....सरहद पार आए दिन होने वाले धमाकों के बाद जाने कितने ऐसे चेहरे आंखों के सामने घूमने लगते हैं, जिनके बस चेहरे याद है और उनके साथ हुई मुलाकात।
आइए, आपको रजा खान से मिलाता हूं। कद यही कोई 6 फीट 3 इंच...पठान, गठीला बदन-कमर में अति अत्याधुनिक रिवाल्वर लगाए रजा खान किसी ऑफिसर से कम नहीं दिखते। उम्र रही होगी यही कोई 50-52 साल। लाहौर का एक व्यस्त चौराहा है-कलमा चौक। वहीं है मिनी गॉल्फ क्लब। वहीं के चीफ सेक्योरिटी ऑफिसर थे रजा खान। उसी गॉल्फ क्लब से सामने हमारा काम करने का अड्डा था। गॉल्फ क्लब हम इसलिए चले जाते थे, क्योंकि वहां छोले के साथ आलू चाट खाने को मिल जाया करती थी...जो शुरू शुरू में हमारा डिनर था। रजा भाई से मुलाकात क्या हुई, हमारा कई काम आसान हो गया। क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए कि एक छोटी सी लिस्ट उन्होंने हमें बता दी, और ये वायदा ले लिया कि जब तक हम लाहौर में हैं, उनसे मिलने जरूर जाएंगे। रजा भाई की बड़ी ख्वाहिश थी कि वो हिंदुस्तान आएं, कई बार उन्होंने ये इच्छा जताई...कहने लगे सुना है कोई बीमार हो तो हिंदुस्तान आने का वीजा मिल जाता है- शादी का न्यौता आ जाए तो वीजा मिल जाता है...खैर, 2004 में हम अक्सर उनसे मिलने जाते थे, उस दौरे से लेकर अगले दौरे तक हम लोग संपर्क में थे। कभी मैं उन्हें फोन कर लिया करता था- कभी वो मुझे फोन कर लिया करते थे। बातचीत से ऐसा लगता था कि अब हमारी जान पहचान अच्छी हो चुकी है। पर, अगली दफे जब मैं पाकिस्तान पहुंचा और उनसे मिलने गया- तो वो मुझे पहचान नहीं पाए। मुझे बहुत गुस्सा आया, मैंने तुनक कर कहा- अभी जो माउज़र आपने लगाई है ना उसी से शूट कर दूंगा। उन्हें सबकुछ याद आ गया, मेरा नाम...मेरा चैनल, और उन्होंने गले लगा लिया। हम लोग बैठे, साथ में कुछ खाया पीया...फिर मैंने उनसे कहाकि मुझे कुछ चीजें खरीदनी हैं- और उसमें चमड़े का एक जूता भी शामिल है। रजा भाई ने एक लड़के को आवाज दी, कहाकि मेरे कमरे में कुछ जूते पड़े हैं उन्हें ले आओ...जूते आ गए। जैसे ही जूते आए, मुझसे उम्र में करीब 20 साल बड़े रजा भाई नीचे बैठ गए, ठीक वैसे ही जैसे अगर आप जूते खरीदने की दुकान पर जाए तो सेल्समैन करते हैं...मैंने हाथ जोड़ लिए, मैं खड़ा हो गया, मैंने कहा- रजा भाई क्यों गुनाह करवा रहे हो, क्या चाहते हो आप....
पर रजा भाई मेरे सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए, उनकी आंखें भर आई थीं, वो कुछ बोले नहीं पर उनकी आंखे यहीं कह रही थीं कि मैं बैठ जाउं...मैं बैठ गया, रजा भाई ने अपने हाथों से मेरा जूता उतारा, मुझे नए जूते पहनाए...और खड़े तब हुए जब मेरे पैर में एक जूता बिल्कुल सही आ गया। वो खड़े हुए तो मैंने बढ़कर उनके पैर छू लिए...इस बार रजा भाई आंसुओं को रोक नहीं पाए, खूब रोए। कहने लगे, बस यही चाहत है कि एक बार हिंदुस्तान घूमने का मौका मिल जाए। मैंने पूछा आपने मेरे जूते उतारकर मुझे क्यों शर्मिन्दा किया, कहने लगे- मियां तुम जानते नहीं हो, ये जूते मैं अपने अब्बा के लिए लाया था, उन्हें भी तो मैं अपने ही हाथों से पहनाता...फिर तुम अब बस इन्हें ले जाओ...कुछ बोले तो माउज़र से शूट कर दूंगा। इस बार उनके हाथ कमर पर थे, और चेहरे पर थोड़ी मुस्कराहट। मैं चला आया, अब रजा भाई का जो नंबर है वो नहीं लगता...मैंने किसी के जरिए पता किया था कि रजा भाई कैसे हैं, पता चला कि अब वो गॉल्फ क्लब रोजाना नहीं आते। अपना ख्याल रखिएगा रजा भाई...
मेरे कुछ और मित्र थे, लाहौर के ही। ग्वाल मंडी की फूड स्ट्रीट पर स्टोरी करनी थी, तब उनसे मुलाकात हुई थी। फूड स्ट्रीट पर स्टोरी करने का दिलचस्प आइडिया दिमाग में आया था। कोशिश ये थी कि पाकिस्तान की कुछ लड़कियां अगर हमारे साथ फूड स्ट्रीट में जाएं, और हमें वहां के पकवानों के बारे में बताएं, तो एक शानदार स्टोरी हो सकती है। अनवर भाई से उसी स्टोरी के सिलसिले में मुलाकात हुई थी। स्टोरी का एंगल बताया तो हंस कर कहने लगे- मैं अपनी मंगेतर को बोल देता हूं, वो अपनी बहनों के साथ आ जाएंगी। हमने उनसे पूछा कि उन्हें कोई दिक्कत तो नहीं होगी क्योंकि हमें फूड स्ट्रीट पहुंचने में थोड़ी देर होगी, दरअसल उससे पहले एक और स्टोरी लाइन-अप थी...जवाब मिला, हूजूर आप पहुंचने से पहले फोन कर दीजिएगा, हम लोग आ जाएंगे, हिंदुस्तान से कोई भाई आए तो उसके लिए तो हम रात तीन बजे भी आ जाएंगे। वो स्टोरी हमने की, हर किसी को उस स्टोरी का अंदाज बेहद पसंद आया। खुदा जाने, अनवर भाई इन दिनों कहां हैं....लाहौर में, कराची में, पेशावर में या कहीं और...
ऐसे ना जाने कितने किस्से हैं, कितने चेहरे हैं जो हर रोज दिमाग में आते हैं-फिर चले जाते हैं। बड़ी ख्वाहिश थी कि एक बार मैं पूरे परिवार के साथ पाकिस्तान जाउंगा, कहने को मेरी वहां कोई जड़े नहीं- कोई रिश्तेदार नहीं, पर सच पूछिए तो तमाम किस्से हैं...तमाम यादें हैं। दिल और दिमाग के एक कोने में बहुत कुछ है।
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चलिए पेशे की चुनौतियों की यादें भी ताजा कर ली जाएं। शायद आपकी दिलचस्पी इन बातों को जानने में भी हो कि मैं आखिर पाकिस्तान पहुंचा कैसे...2004 में तकरीबन 14 साल बाद भारतीय क्रिकेट टीम के पाकिस्तान दौरे को मंजूरी मिली थी। मंजूरी शब्द का इस्तेमाल यहां इसलिए जरूरी है क्योंकि ये मंजूरी गृह मंत्रालय से मिली थी, इससे पहले सुरक्षा विशेषज्ञों की एक टोली ने पाकिस्तान जाकर बाकयदा सुरक्षा इंतजामों का जायजा लिया था। ये दौरा मार्च में शुरू होना था, जिसमें 3 टेस्ट मैच और 5 वनडे मैच खेले जाने थे। इस दौरे की कवरेज के लिए सभी टीवी चैनल्स ने जोरदार तरीके से तैयारी की थी। मैं उन दिनों जी न्यूज में था। एक रोज बॉस ने बुलाया और इस दौरे के लिए मुझे, एक और सहयोगी अनिमेष चौधरी और दो कैमरामैन को एक्रीडीटेशन के लिए आवेदन करने को कहा।
सीरीज को कवर करने के लिए वाया बीसीसीआई हम सभी ने एक्रीडीटेशन फॉर्म भर दिया था। कुछ रोज बाद, पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड ने मेरे और अनिमेष के नाम की मंजूरी तो दे दी- लेकिन साथ ही साथ ये जानकारी भी मिली कि इस दौरे के लिए किसी भी निजी चैनल को कैमरामैन और कैमरा ले जाने की इजाजत नहीं होगी। ये तय हुआ कि हम पाकिस्तान पहुंचकर कोई लोकल कैमरामैन ढूंढेंगे।
यहां एक छोटी सी जानकारी देना जरूरी है वो ये कि 2003 के पहले मैं आउटपुट टीम का हिस्सा था। यानी मेरे जिम्मे देश के हर कोने से आने वाली संवाददाताओं की रिपोर्ट्स को दर्शकों तक पहुंचाने का काम था, पर जब 2003 वर्ल्ड कप के दौरान एक नई खेल डेस्क बनाई गई, तो मुझे उसमें रखा गया। साल खत्म होते होते ऑस्ट्रेलिया दौरे को कवर करने को भी कहा गया- पर तब मेरे पास पासपोर्ट नहीं होता था। जब पासपोर्ट ना होने की जानकारी मैंने अपने तत्कालीन बॉस को दी, तो उन्होंने खूब डांटा...बोले- इलाहाबाद में संगम पर नाव चलाओ या किराने की दुकान खोल लो- तुम्हें पत्रकार बनने का कोई अधिकार नहीं है। खैर, वो मौका हाथ से निकल गया तो जल्दी ही दूसरा मिला, खबर और दौरे की अहमियत के लिहाज से ऑस्ट्रेलिया से कहीं बड़ा दौरा पाकिस्तान का था...और मैं पासपोर्ट बनवा चुका था। तत्काल सेवा में। यानी अब ना तो मुझे संगम किनारे नाव चलानी थी और ना ही किराने की दुकान खोलनी थी, अब मुझे रिपोर्टिंग करनी थी।
मेरे पाकिस्तान दौरे पर जाने की बात पापा मम्मी को मालूम हुई, तो उन लोगों ने थोड़ी शंकाए भी जाहिर की। पापा ने कहा- अरे, कहीं और चले जाना। पाकिस्तान जाना जरूरी है क्या, मैंने उन्हें समझाया, लेकिन मुझसे ज्यादा समझाया मेरे बड़े भाई ने। अगला काम था पाकिस्तान का वीजा लेना। 2004 के बाद अबतक मैं 4 बार पाकिस्तान जा चुका हूं, उसके अलावा भी क्रिकेट कवरेज के सिलसिले में कई देशों की यात्राएं की हैं...पर ये बात मैं बिल्कुल होशो-हवास में लिख रहा हूं कि पाकिस्तान का वीजा लेना लगभग चांद तारे तोड़ने जैसा ही है। वो भी तब जबकि आपका नाम बीसीसीआई, पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड और तमाम जरूरी संस्थाओं से अप्रूव हो चुका हो। तो साहब हम पहुंचे पाकिस्तान हाई कमीशन में वीजा के आवेदन के लिए। गेट नंबर 1 पर कहा गया, गेट नंबर 2 पर जाइए, गेट नंबर 2 बंद था, गेट नंबर-3 खुला था....उसके सामने लंबी लाइन थी। पता चला यहां वीजा का फॉर्म मिलता है। बड़ी मुश्किल से वीजा का फॉर्म लिया। अब तो इस तरह के काम न्यूज चैनल की एडमिन टीम के लोग करा दिया करते हैं, पर उस समय ये जिम्मेदारियां रिपोर्टर के खाते में ही आती थीं। फॉर्म भरा- पर उसे लेने वाला कोई नहीं...तब तक फॉर्म नहीं लिया गया, जब तक पीसीबी से लिस्ट नहीं आ गई। फॉर्म जमा हो गया, तो ये बताने वाला कोई नहीं कि अब वीजा मिलेगा कब...हर रोज फोन करना और एक ही जवाब सुनना- अभी नहीं, ये सिलसिला कई दिनों तक चला। इस बीच हमारी लाहौर की टिकटें आ गई थीं।
10 मार्च 2004। शाम करीब 5 बजे के आसपास की फ्लाइट थी। वीजा का अभी तक कोई पता ठिकाना नहीं था। ये आस जरूर बंधी थी कि आज वीजा मिल जाएगा। उसी दिन सुबह कोई खास बुलेटिन जाना था। मेरे और अनिमेष में से किसी एक का हर हाल में दफ्तर में होना जरूरी था। हम लोगों ने तय किया कि मैं हाई कमीशन जाऊंगा, और अनिमेष दफ्तर में बुलेटिन देखेंगे। हमने तैयारी के तौर पर अपनी अटैची भी साथ रख ली थी कि अगर वीजा मिल गया तो वापस घर ना लौटना पड़े। सुबह तकरीबन साढे दस बजे हम फिर पाकिस्तान हाई कमीशन की खिड़की पर थे। बताया गया कि जिनके जिनके नाम आ गए हैं, उन्हें 2 बजे के बाद वीजा मिल जाएगा। मोटे तौर पर कहा जाए तो अब भी 100 फीसदी कन्फर्म नहीं था कि आज हमारा वीजा भी मिल जाएगा। मैं अनिमेष को फोन करके पल पल की जानकारी दे रहा था। मैंने उनसे कहाकि वो भी घर जाकर कुछ कपड़े वगैरह रख लें, पर वो काम की वजह से दफ्तर से नहीं निकल सकते थे। 2 बजे के बाद जब वीजा के लिए खिड़की खुली, तो ऐसा लगा कि पत्रकारों में झगड़ा हो जाएगा। लड़ते झगड़ते मेरे हाथ में भी करीब सवा तीन बजे तक मेरा और अनिमेष का पासपोर्ट आ चुका था। दोनों के पासपोर्ट पर पहला वीजा। पाकिस्तान का वीजा। पहला विदेश दौरा।
अब फ्लाइट में करीब 2 घंटे का वक्त बचा हुआ था। इसी फ्लाइट से भारतीय टीम के खिलाड़ियों को भी लाहौर जाना था। अंतर्राष्ट्रीय फ्लाइट पकड़ने के लिए 3 घंटे पहले एयरपोर्ट पर पहुंचने का नियम है। फिर भी कोई जुगाड़ करेंगे ये सोच कर मैं सीधा एयरपोर्ट के रास्ते पर था। अनिमेष ऑफिस में थे-और ऑफिस नोएडा में। अनिमेष वहां से भागे, अभी रास्ते से ही फॉरेक्स यानी डॉलर का इंतजाम भी करना था...उस बारे में मैंने एकाउंटस में फोन से बात की। मेघा ने किसी तरह डॉलर्स का इंतजाम किया, और फॉरेक्स लेकर एक तीसरा आदमी एयरपोर्ट के लिए रवाना हुआ। आपकी सुविधा के लिए एक बार फिर याद दिला दूं कि मैं हाई कमीशन से दिल्ली एयरपोर्ट के रास्ते पर था। अनिमेष नोएडा से दिल्ली एयरपोर्ट के रास्ते पर थे और फॉरेक्स लेकर एक तीसरा आदमी शायद कनॉट प्लेस से एयरपोर्ट के रास्ते पर था। इसी बीच मैंने अपने एक सहयोगी, जो एविएशन बीट पर काम करते थे को पूरे हालात समझा दिए थे। उन्होंने बताया था कि एयरपोर्ट पर कोई मुझे मिलेगा जो मेरी पूरी मदद करेगा और कोशिश करेगा कि मैं फ्लाइट पकड़ सकूं। अलग अलग रास्ते से निकलकर हम तीनों तकरीबन साढ़े चार बजे के आस-पास मिले...हमारी मदद के लिए वो शख्स तैयार खड़े थे। उन्होंने हमारी तमाम उन हिचकिचाहटों को मन में आने से रोका जो पहली बार देश से बाहर जाने पर होती हैं। चेक-इन, इमीग्रेशन और हम फ्लाइट में। खिलाड़ी हमसे पहले से फ्लाइट में बैठे हुए थे। ऐसा लग रहा था कि जहाज सिर्फ हमारा इंतजार कर रहा था। इतना भी वक्त नहीं मिला कि मोबाइल पर फोन करके घर वालों को हम बता सकें कि हम जा रहे हैं। पाकिस्तान जा रहे हैं। अच्छा ये बताना तो मैं भूल ही गया था कि अनिमेष बगैर किसी सूटकेश के जा रहे थे। यानी उनके पास कोई कपड़ा लत्ता नहीं था। वही कपड़े जो शरीर पर थे...दौरा करीब 2 महीने का था और कपड़ा कोई नहीं। उस फ्लाइट से टीम के खिलाड़ियों के साथ लाहौर की उड़ान भरने वाले सिर्फ 2 टीवी पत्रकार थे- मैं और अनिमेष।
ज्यादा से ज्यादा 2 घंटे लगे होंगे, लाहौर पहुंचने और वहां इमीग्रेशन करवा कर एयरपोर्ट से बाहर निकलने में। बाहर निकलते ही हमने पाकिस्तान के लोकल सिम कार्ड लिए। दफ्तर में फोन करके बताया कि हम पहुंच गए। बॉस का आदेश मिला- तुंरत फोनो दो। फ्लाइट में क्या कर रहे थे खिलाड़ी, एयरपोर्ट पर उतरे तो कैसा स्वागत हुआ, पाकिस्तान की जमीन पर कदम रखा तो क्या लग रहा है...जैसे सवाल पर हमारा फोनो हुआ। फोनो के तुरंत बाद बॉस ने फोन करके कहाकि एक बात हम गांठ बांध लें कि हर चीज एक स्टोरी है। पाकिस्तान को लेकर जिस तरह की संवेदनाएं हैं, उसमें तमाम तरह की मानवीय पहलुओं वाली स्टोरी की उम्मीद हम दोनों से की जा रही थी। हमने तमाम स्टोरीज प्लान भी की थीं। बात साफ हो गई थी कि आने वाले दिनों में चुनौतियां बढ़ती जाएंगी। हमारी गाड़ी “रिहाइश इन” नाम के एक गेस्टहाउस के रास्ते पर थी। हमसे पहले पाकिस्तान जा चुके सहयोगियों ने हमें लाहौर के कलमा चौक के पास इस गेस्ट हाउस में रूकने की सलाह दी थी। हम कुछ देर बाद बिस्तर पर लेटे थे। एयरपोर्ट से उतरने के बाद गेस्ट हाउस तक पहुंचने के दौरान मैंने जो कुछ देखा-सुना या महसूस किया था उसके बाद दिमाग में एक बात घूम घूम कर आ रही थी कि ये पाकिस्तान क्यों है- और वो भारत क्यों...विदेश की किसी भी परिभाषा पर पाकिस्तान मुझे फिट होता नहीं दिख रहा था। सब कुछ यहीं के जैसा था। बिल्कुल एक जैसा।
रात में जब हम खाना खाने के लिए निकले और जिस कार में बैठे, उसने हमसे पूछा आप कहां से आए हैं। हमने अपने बारे में बताया कि हम हिंदुस्तानी हैं और यहां क्रिकेट सीरीज कवर करने के लिए आए हैं। बालों में चांदी जैसे बाल लिए वो शख्स खुश हो गया- कहने लगा आपको हिंदुस्तानी गाने सुनाता हूं। थोड़ी ही देर में कार में अमिताभ बच्चन की किसी फिल्म के गाने बज रहे थे। उसने ये भी पूछा कि आप हिंदुस्तान में कहां से हो- दिल्ली से? हमने जवाब दिया कि हम दिल्ली में नौकरी करते हैं- लेकिन रहने वाले एक छोटे से शहर के हैं। उसने शहर का नाम पूछा, मैंने बताया आपने नाम नहीं सुना होगा- मैं इलाहाबाद का रहने वाला हूं। उसने कहा- वाह, अमिताभ बच्चन भी तो वहीं के हैं। उसके इस जवाब ने पहले तो चौंकाया, फिर दिमाग में वही बात आ गई कि आखिर फर्क ही क्या है, जो उसे नहीं पता होगा कि अमिताभ बच्चन का ताल्लुक भी इलाहाबाद से है। रास्ते में उससे तमाम बातचीत होती रही, मुझे बिल्कुल कायदे से याद है कि उसने ये भी पूछा कि ये बाल ठाकरे कौन है? हमने बता दिया कि बाल ठाकरे कौन है।
अगले दिन सबसे पहले कैमरामैन ढूंढने का काम शुरू हुआ। कलमा चौक के करीब वीडियो स्पॉट नाम की एक कंपनी के साथ करार हुआ। करार ये था कि हम उनके कैमरामैन के साथ काम करेंगे, उनकी एडिट टेबल का इस्तेमाल करेंगे। अब स्टोरीज की मारामारी शुरू हुई। टीम की हर गतिविधी पर नजर और उसके साथ साथ सॉफ्ट स्टोरीज करने का दबाव। अब परेशानी इस बात की थी कि हम जो कुछ भी शूट कर रहे हैं, उसे भेजेंगे कैसे...क्योंकि शूट की गई फीड को भेजने के लिए पीटीवी के स्टेशन से करार करना होता था और दस मिनट की फीड भेजना बेहद महंगा सौदा था। शुरूआत में एक-दो दिन हमने इंटरनेट के जरिए फीड भेजने की कोशिश की। आज तकरीबन 6 साल बाद विदेश दौरों पर रिपोर्टर्स इंटरनेट से ही फीड भेजते हैं- पर तब ये काम बेहद मुश्किल था। वजह थी इसके बारे में ज्यादा जानकारी का ना होना और पाकिस्तान में आसानी से साइबर कैफे का ना मिलना। एक दो रातें काली हुई। हमने रात रात भर बैठकर फीड तो भेजी, पर सिर्फ 1 मिनट की...यानी स्टोरी के लिहाज से 1 मिनट की फीड जरूरत से कहीं ज्यादा कम। सबसे ज्यादा झुंझलाहट तब हुई जब हमारे पास सचिन तेंडुलकर का छोटा सा एक्सक्लूसिव इंटरव्यू था, पर हम उसे लाख कोशिश करके भी भेज नहीं पाए। सचिन उस दौरे पर इकलौते ऐसे खिलाड़ी थे, जो 2004 से पहले भी पाकिस्तान में खेल चुके थे। उस इंटरव्यू को करने की कोशिश में पुलिस वालों ने करीब करीब मुझे खींच ही लिया था...कुछ इसी तरह अनिमेष ने उस समय पाकिस्तान टीम के कप्तान रहे इंजमाम उल हक का इंटरव्यू किया था, पर हम वो भी भेज नहीं पाए थे। बॉस को इन सारी परेशानियों की जानकारी दी गई- आखिरकार उन्होंने बातचीत करके पीटीवी से करार के लिए हामी भर दी। इस करार का मतलब ये था कि हमें हर रोज पीटीवी के स्टेशन से जाकर फीड भेजनी होती थी, हम एक शूट टेप पर 10 मिनट की एडिटिंग करके स्टोरीज तैयार करते थे और वो स्टोरीज वहां से यहां रियल टाइम में रिकॉर्ड करा दी जाती थीं। काम की गाड़ी अब धीरे-धीरे पटरी पर आ रही थी, स्टोरीज शूट करना और उसे भेजना। दफ्तर से कलर स्टोरीज की डिमांड बढ़ती जा रही थी, और हम जिस हद तक उसे पूरा कर सकते थे, पूरा कर रहे थे। अभी असली मुसीबत हमारा इंतजार कर रही थी। दौरे के पेशावर पहुंचते पहुंचते कवरेज पर थोड़ी और सख्ती कर दी गई। प्रैक्टिस के दिनों में भी वही कैमरामैन अंदर जा सकते थे, जिनके पास एक्रीडीटेशन पास हो, जो हमारे कैमरामैन के पास नहीं था। यानी अब कैमरा चलाने की जिम्मेदारी भी हमारी ही थी, आजकल की तरह पीडी कैमरा नहीं, बल्कि बड़ा बीटा कैमरा। जिसमें बैटरी अलग से कंधे पर लटकानी होती है। एक रोज उस दौरे पर टीम इंडिया के मीडिया मैनेजर रहे अमृत माथुर ने स्पिनर रमेश पोवार और तेज गेंदबाज एल बालाजी का ओपन मीडिया सेशन कराया। ओपन मीडिया सेशन में हर चैनल के संवाददाताओं के पास मौका था कि इन दोनों खिलाड़ियों से इंटरव्यू किया जा सके। हर चैनल के संवाददाता के साथ उनका कैमरामैन था- जबकि मैंने और अनिमेष ने एक दूसरे के इंटरव्यू के लिए खुद कैमरा किया...जाहिर सी बात है कैमरे पर कंट्रोल ना होने की वजह से इंटरव्यू अच्छी तरह से शूट नहीं हो पाया। इस वजह से बाद में हम दोनों को ही बॉस से डांट खानी पड़ी। अच्छा हां, इस दौरान हमने जितनी भी स्टोरीज शूट की, उसमें अनिमेष ने मेरे कपड़े पहनकर काम चलाया। हकीकत ये है कि हमें वहां इतना वक्त भी नहीं मिल पा रहा था कि कुछ कपड़े खरीद लिए जाएं। उस दौरे में भारत ने टेस्ट सीरीज जीती, वनडे सीरीज जीती, सहवाग भारतीय क्रिकेट इतिहास में तिहरा शतक बनाने वाले पहले खिलाड़ी बने...सीरीज के दौरान ही पूर्व तेज गेंदबाज सरफराज नवाज ने मैच फिक्सिंग के भूत को जिंदा कर दिया, उन्होंने आरोप लगाया कि पाकिस्तान और भारत की सीरीज फिक्स है। ये एक ऐसी खबर थी, जिसे चलाना और ना चलाना दोनों बेहद चुनौती भरा काम था। हमारे पास नवाज की बाइट थी, लेकिन हमने फिर भी वो स्टोरी नहीं चलाई। आज जब हर सीरीज के बाद पाकिस्तान की टीम पर मैच फिक्सिंग के आरोप लगते हैं, तो मुझे लगता है कि पाकिस्तान में कई सरफराज नवाज पैदा हो गए हैं। इन सारी बड़ी खबरों की कवरेज की चुनौती रही, लेकिन सच्चाई ये है अब भी इन खबरों से ज्यादा चुनौती उन चेहरों को भूलने की है- जो हर रोज सोते जागते आंखों के सामने आते रहते हैं...मानो कहते हों मियां कभी हमारा भी हाल चाल ले लिया करो...

Tuesday, January 5, 2010

नया ज्ञानोदय का मीडिया विशेषांक अब उपलब्ध है...


नया ज्ञानोदय का मीडिया विशेषांक अब बाजार में है। 128 पन्नों के इस विशेषांक की कीमत 35 रुपये रखी गई है। अप्रैल 2009 से लेकर दिसंबर 2009 का वक्त लगा, इस अंक को प्लान करने से लेकर बाजार में आने तक...पर अंक आया तो देखकर खुशी हुई। एक मित्र तो रात भर में पूरा विशेषांक बगैर किसी रूकावट के पढ़ गए। अपने ब्लॉग पर इस अंक के विज्ञापन की जानकारी मैं पहले भी दे चुका हूं, पर एक बार फिर बताना जरूरी है कि इस विशेषांक में एनडीटीवी, स्टार न्यूज. आजतक, आईबीएन-7 और जी न्यूज के कई जाने माने संवाददाताओं ने करियर की सबसे चुनौती भरी रिपोर्ट का संस्मरण लिखा है। कई बरस के बाद मैंने खुद भी लिखा, इस मीडिया विशेषांक को पढ़े, और अपनी राय जरूर दें।