Wednesday, November 26, 2008

साधो सबका, सब साधो हमारे







बहुत डरते डरते जीतेंद्र जी से SMS करके पूछा कि क्या साधो फेस्टीवल पर लिखी गई रिपोर्ट मैं अपने ब्लॉग पर डाल सकता हूं...जवाब आया-
साधो सबका, सब साधो हमारे
मजा आ गया, साधो के बारे में और जीतेंद्र जी के बारे में पहले भी इस ब्लॉग में थोड़ी बहुत बातचीत हुई है। अब इस बार प्रताप भाई की शानदार रिपोर्ट को अपने ब्लॉग पर डालने का मौका मिल गया। चलिए किसी ना किसी तौर पर मैं भी खुद को साधो से जुड़ा हुआ मान सकता हूं।
उम्मीद है कि आप इस पोस्ट को पसंद करेंगे। गुजारिश है कि अगर आप इस पोस्ट पर कोई भी टिप्पणी देना चाहें, तो उसकी एक प्रति http://sadho.com/?p=1171 इस पन्ने पर भी ज़रूर डालें। इससे साधो से जुड़ी टीम तक आपकी राय सीधे पहुंच सकेगी।
“अस्त्र, जिनकी केवल एक बार आवश्यकता पड़े, जीवन भर साथ रखना पड़ता है
कविताएं, जिन्हें जीवन भर दोहराया जाता है, एक बार ही लिखी जाती हैं”
विख्यात रूसी लेखक रसूल हमज़ातोव कविता का जो अथॆ समझाते हैं, वह हमें कानपुर के कविता फिल्म समारोह के दौरान बार-बार पलटकर हमारे पास आया। कविता ओढ़ते-बिछाते आयोजन के ४८ घंटे हमसब की यादों का सबसे खूबसूरत हिस्सा बन चुके हैं।
शुरूआत की बात आखिर से
बात अंत से ही शुरू करता हूं। समारोह संपन्न हो चुका था। दिल्ली से आए साधो के आठ मित्र लौट रहे थे।
ट्रेन जब कानपुर प्लेटफामॆ छोड़ रही थी। तभी हमारे एक साथी ने कहा-सर, ये कविता फिल्म महोत्सव एक आयोजन से बढ़कर पारिवारिक उत्सव रहा। ये भाव प्लेटफामॆ पर ख़ड़े हम सब के मन में था। अभिव्यक्ति किसी एक ने दी थी।
गुजरे दो दिन यानि ४८ घंटे। कविता फिल्म समारोह की तैयारियों ने यूं तो सप्ताह भर से हमें एक दूसरे से और सघन रूप से बांध दिया था। एक दफ्तर में अलग-अलग पदों पर काम करने वाले लोगों के बीच पद और अधिकार के बोध की जगह परस्परता और विश्वास ने ले लिया था। कभी-कभार मिलने वाले लोगों से रोज मिलना हो रहा था। एक-दूसरे से चुहल करने के लिए नए-नए प्रसंग और मुहावरे गढ़े जा रहे थे।
एक ने आकर कहा-सर, महेश जी को किसी फिल्म में चांस दिला दीजिएगा। बुढ़ापा सुधर जाएगा, बड़ी मेहनत कर रहे हैं। महेश शर्मा अमर उजाला काम्पैक्ट एडीशन के चीफ रिपोटॆर हैं और आयोजन के सूत्रधार जनों में एक।
कौशल किशोर जो अमर उजाला के मेट्रो एडीशन के इंचाजॆ हैं, उन्हें देखते ही रिपोटॆर मजाक करते थे, सर यहां से तो एसाइनमेंट पर मत भेजिए। आयोजन से जुड़े लोग जाने कितने अरसे बाद एक-दूसरे के साथ एक जगह जुटे और खुलकर हंसे थे। साधन और व्यवस्था जो पहले दिन हमारे लिए चिन्ता के विषय में थी, एक बार बात लोगों तक पहुंची तो इतने लोग सामने आए कि हमे चुनना पड़ा कि गाड़ी किससे लेगें और सभागार किससे कहेंगे।
कविता फिल्म समारोह हमारे लिए हर क्षण हमारे लिए एक नए अनुभव से गुजरना था। कविता फिल्म महोत्सव के बारे में पहले दिन जिन साथियों को पोएट्री फिल्म का मतलब समझाना पड़ा था। १६ फिल्मे दिखाने के नाम पर जो चौंक कर प्रति फिल्म तीन घंटे की अवधि जोड़ कर चिंतित हो जाते थे। अब कहने लगे थे कि पास के किसी शहर में आयोजन हुआ तो फिर जाउंगा। कविता फिल्म महोत्सव के उददेश्यों की सफलता का ये रिपोटॆ काडॆ था। दो दिन पहले तक जो लोग कविता फिल्में और साधो के बारे में लगभग अपरिचित से थे, वे सभी पूरे आयोजन को परिवार की परिधि में देख रहे थे।
चाय की दुकान पर
सबके पास फिल्म समारोह से जुड़े अलग-अलग किस्से थे। आखिरी किस्सा आपको सुनाए देता हूं। स्टेशन पर छोड़ने गए लोगों के हाथ में एक-एक सीडी थी। ये सीडी साधो दिल्ली के मित्रों ने हम सबको उपहार स्वरूप दी थी। चाय की दुकान पर बैठे सभी साथी फिल्म समारोह के किस्से साझा कर रहे थे। हमारे एक साथी डा. राम महेश मिश्र ने सीडी का पैकेट खोला तो चौंक पड़े। बोले, मेरे डिब्बे में तो सीडी ही नहीं है। एक ने चुहल की-तुम्हें कविता फिल्में देखने के लिए क्वालिफाई नहीं पाया गया होगा इसलिए खाली डिब्बे से काम चलाओ। कुछ के चेहरे पर नकली संजीदगी थी, कुछ अपनी मुस्कुराहट छिपाने में लगे थे। राममहेश ने आयोजन की यात्रा व्यवस्था के पक्ष में बड़ी मेहनत की थी, बेचारे मुंह लटका लिए। मैनें कहा कि आपके लिए अतिरिक्त सीडी मंगा लेंगे। वे बोले, इतनी खूबसूरत और साथॆक फिल्में थी कि उसकी प्रति का खोना कुछ छूटने जैसा लग रहा है। थोड़ी देर बाद आपस की खुसर-पुसर और हंसी न छुपा सकने वालों के जरिए पता चल गया कि हमारे एक तीसरे साथी ने चुहल की थी। चुपके से राममहेश के पैक से सीडी निकाल ली। इस तरह आयोजन की तैयारी, आयोजन और विदाई, सबकुछ कानपुर की यादों का हिस्सा बन गया।
सीधे प्रेक्षागृह से
कविता फिल्म समारोह के लिए निमंत्रित करते समय हमने १५० लोगों के आने की एक अंतिम संख्या मन में सहेज रखी थी। यही सोचकर ३०० लोगों को निमंत्रण भेजे।
सीएमएस सभागार के व्यवस्थापक समारोह शुरू होने के पहले से बीच-बीच में कुर्सियां डालने लगे। लोग आते ही जा रहे थे। बीच में अपने सीपीएस तोमर हाल में एक तरफ से दूसरी तरफ गुजरते हुए कुर्सी लगाने वाले को टोकते हैं। कहते हैं - बीच में थोड़ी जगह छोड़ दो। वो बोल पड़ता है, सर, हमें क्या पता इतने लोग आ जाएंगे। उसकी झल्लाहट हमें एक सुख दे रही थी। एक उम्मीद की आने वाले दिनों में मझोले शहर सांस्कृतिक वातावरण की शुद्धता और परंपरा के वाहक बनेंगे।
कुछ सवाल जो बार-बार आए
कविता फिल्म समारोह के आयोजन में कुछ ऐसे सवाल हम तक आए, जो हंसाते भी थे और बहुत कुछ सोचने को मजबूर भी करते थे। समारोह शुरू हुआ। सीएमएस के निदेशक एमए नकवी ने स्वागत किया। सहारा समय न्यूज चैनल के ब्यूरो प्रमुख राजीव तिवारी संचालन के लिए माइक हाथ में थामें तैयार थे। आयोजन वाले दिन जब जितेंद्र जी ने कहां कि आज हम १२ फिल्में दिखाएंगे, इससे पहले की वह बताते कि फिल्में कुछ सेंकेंड्स से कुछ मिनटों की हैं। प्रेक्षागृह में बैठी एक लड़की बोल बगल बैठी सहेली से बोल पड़ी २४ से ३६ घंटे तक फिल्में दिखाएंगे क्या?
कानपुर में यह समारोह क्यों? यह एक ऐसा सवाल था जो आयोजन की परिकल्पना पर किसी भी शहरी से बातचीत के घूम-फिर कर आ जाता था। यहां तक की साधो की प्रेस कांफ्रेंस तक में यह सवाल सामने से आ ही गया। छोटे और मझोले शहरों को साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजनों के पात्र न समझा जाए, यह सवाल इस चिन्ता को भी हम तक ले आया।
नंदन सक्सेना ने आयोजन वाले दिन जब ये कहा कि साधो की परिकल्पना ही यही है कि हम छोटे-छोटे शहरों और समूहों कर कविताओं को अलग-अलग माध्यमों से ले जाएं। फिल्म समारोह उसी की एक कड़ी है। मुझे लगता है कि बहुत सारे लोगों को जवाब मिल गया था।
इस समारोह से आयोजकों का फायदा क्या है? कविताओं पर आधारित फिल्में बनाना क्या जीविकोपाजॆन का माध्यम हो सकता है? ये सवाल किसी ने सीधे पूछे तो किसी न इशारों में।
एक दशॆक दम्पति व अंत, एक शुरूआत…
लखनऊ से सिफॆ समारोह के निमित्त आए कवि सर्वेन्द्र विक्रम और उनकी पत्नी का जिक्र किए बिना तो आयोजन के जरूरी प्रसंग पूरे नहीं होगें। उनका आना जितना सुखद था, उससे कई गुना प्रफुल्लता उनके उस वाक्य से हुई जो आयोजन के ठीक बाद उन्होंने कहा। सर्वेन्द्र बोले-ये समारोह कराने में कितना खर्चा आता होगा, मैं वही जोड़ रहा था। उन्हें जब यह खबर लगी कि सबकुछ थोड़े-थोड़े प्रयासों से हुआ है, साधन तो नाम-मात्र का रहा। उनका उत्साह कई गुना बढ़ गया।
मुझे लगा साधो का कारवां इसी तरह की कड़ियों से मिलकर ही आगे बढ़ेगा। आयोजन जहां सिफॆ प्रदशॆन ही नहीं, भीतर के भाव को दूसरों तक पहुंचाने में सफल होगें।
कानपुर में तो ऐसा ही हुआ। आगे की उम्मीद क्यों न करें?

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