Wednesday, December 24, 2008

प्रगति मैदान...काहे की प्रगति?



कई बरस पहले की बात है इंडिया टुडे ने “ये भदेस भारतीय” की कवर स्टोरी के साथ एक अंक प्रकाशित किया था। जहां तक मुझे याद है काफी आलोचना हुई थी, उस अंक की...आलोचना की वजह बड़ी साफ थी कि हम भारत को आगे ले जाने की बजाए खुद ही उसकी कमियां गिनाने पर अमादा हैं। संयोग से कई बरस बाद उस अंक की याद ताजा हो गई...मैं इस बहस में नहीं पड़ रहा कि इंडिया टुडे का वो अंक प्रासंगिक या तर्कसंगत था या नहीं, मैं सिर्फ लोगों तक अपना हालिया अनुभव पहुंचाना चाहता हूं। फैसला आप करें...
बीते सोमवार की ही बात है, प्रगति मैदान गया था। इससे पहले एक-दो दफा पहले भी प्रगति मैदान गया हूं, पर किसी ना किसी स्टोरी के शूट के सिलसिले में...जब अंदर गए-काम किया और बाहर आ गए। सोमवार को ऐसा कुछ नहीं था...एक नुमाइश देखने के लिए गया था-इसलिए वक्त पर्याप्त था। गेट नंबर-2 पर पहुंचा, गार्ड ने बताया कि सामने भैरव मंदिर की तरफ गाड़ी पार्क करनी होगी, सबवे से लौटकर टिकट लेना होगा और उसके बाद अंदर।
तो साहब, हमने गाड़ी पार्क की, टिकट लिया और पहुंच गए अंदर। प्रदर्शनी कहां लगी है? मुझे उम्मीद थी कि सूचना देने के लिए जो टेंपरेरी ऑफिस बनाए गए हैं, वहां से ये पता चल जाएगा, देखा तो वहां सूचना देने के लिए कोई उपलब्ध ही नहीं था। खैर, तब तक सामने नजर पड़ गई- प्रदर्शनी सामने ही लगी हुई थी। प्रदर्शनी देखी, थोडी खरीदारी भी की।
वहां से निकला तो टॉयलेट ढूंढना शुरू किया। गेट नंबर-2 से अंदर घुसने के बाद बाएं मुड़ते ही जो टॉयलेट है उसकी हालत किसी छोटे शहर के रेलवे स्टेशन के टॉयलेट से कहीं ज्यादा बदतर थी। इतनी गंदगी कि वहां अब और गंदगी फैलाने की गुंजाइश ही नहीं बची है। (इस गंदगी को देखकर ही इंडिया टुडे का वो अंक याद आ गया था)
खैर, वहां से आए...कुछ खाने के इरादे से आगे बढ़ा। मसाला डोसा खाने की इच्छा थी। मसाला डोसा ऐसा था कि “थोड़ा खाओ-ज्यादा फेंको”…पानी मांगा तो पता चला कि पीछे नल लगा है, वहां मिलेगा पानी...हम पानी नहीं रखते।
आगे जाने की हिम्मत खत्म हो गई, मैं वापस लौट आया...ये सोचते हुए कि ये प्रगति मैदान किस प्रगति की राह पर है। ऐसे मोटे मोटे अवारा कुत्ते घूमते रहते हैं, कि अगर आपको दौड़ा कर काट लें, तो घूमने फिरने का शौक जिंदगी भर के लिए खत्म हो जाएगा। मैं इस पोस्ट को इस इरादे से लिख रहा हूं कि प्रगति मैदान जाने-आने वाले या वहां के मैनेजमेंट या फिर सरकार से जुड़े किसी शख्स तक ये बातें पहुंच जाएं (वैसे मुझे पूरी उम्मीद है कि सभी को पता ही होगा) वो इस बारे में सोचे, और तब शायद प्रगति मैदान-प्रगति मैदान की तरह दिखने लगे। अगर आप भी मेरी तरह के अनुभव से दो-चार हुए हों तो लिखें...क्या पता बात शायद दूर तलक चली जाए।

2 comments:

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

प्रगति हुई है ना,
टिकटों की कीमत देख लें।

Gyan Darpan said...

प्रगति हुई है ना,
टिकटों की कीमतों में और वहां के कर्मचारियों की