
टीवी चैनल्स पर मुंबई में हुए आतंकी हमलों को लेकर गलत ढंग से कवरेज का आरोप लगना शुरू हो गया है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ...और आखिरी बार तो कत्तई नहीं। प्रिंट के बड़े अखबारों के बड़े-बड़े रिपोर्टर ये लिखना शुरू कर चुके हैं कि टीवी वालों ने तो ऐसा दिखा दिया-वैसा दिखा दिया। कोई कह रहा है कि सुरक्षा दस्तों की प्लानिंग (वो होटल्स में कहां से घुसने की तैयारी में हैं, वो कहां से गोली चलाने वाले हैं, वो कितनी संख्या में हैं...वगैरह-वगैरह) टीवी चैनल्स की वजह से आंतकवादियों को पता चल रही थीं। कोई ना कोई जल्दी ही ये भी कहेगा कि मुंबई में आतंकी वारदात को भी टीवी चैनल्स ने EVENT बना दिया। ऐसे आरोप पिछले दिनों हुए अलग-अलग धमाकों के अलावा किसी बड़ी दुर्घटना या फिर मुंबई में आई बाढ़ के समय भी लगे हैं।
मैं जानना चाहता हूं कि कितने प्रिंट के रिपोर्टर गए थे ये देखने के लिए कि ताज-ओबरॉय या नरीमन प्वाइंट पर कैसे हालात है? गए भी थे तो कितने हैं जो पूरी रात...बल्कि करीब 60-65 घंटे तक लगातार रिपोर्टिंग करते रहे...आस पास से गोलियां तक निकली। कितने प्रिंट के रिपोर्टर थे जो मुंबई की बाढ़ में ढाई-तीन फिट पानी में उतर उतर कर लोगों तक जानकारी पहुंचा रहे थे। सुना है अब तो प्रिंट मीडिया के दफ्तरों में भी बाकयदा तमाम मॉनिटर लगे हुए हैं- वहीं बैठे बैठे कई खबरें तैयार हो जाती हैं। रिपोर्टर भी घर बैठे बैठे टीवी चैनल्स पर निगाहें गड़ाए रखते हैं। हॉं, अखबार में छपी खबरों पर टीवी में भी स्टोरीज होती हैं....पर इसमें बड़ा मैं या तू की लड़ाई की क्या ज़रूरत? पर कुछ लोग हैं जो तैयार बैठे हैं- हर वक्त कि जैसे ही मौका मिले, टीवी वालों पर कर दो हमला- बता दो कि इन्हें कुछ नहीं आता, ये तो बेवकूफ हैं।
मैंने भी प्रिंट मीडिया में काम किया है- मौका मिला तो आगे कभी फिर करूंगा। मुझे भी पता है कि कई खबरें फोन पर ही ली और दी जाती हैं। पर टीवी की मजबूरी है उसे दृश्य दिखाने होते हैं- दृश्य रात 12 बजे के हों या सुबह 4 बजे के।
निशाना साधना आसान होता है टीवी चैनल्स पर। भूल जाते हैं हमारे भाई-बिरादर कि जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू और नीतिश कटारा हत्याकांड की परतें खोलने में टेलीविजन चैनल्स का क्या रोल था। भूल जाते हैं लोग कि ये टेलीविजन चैनल की ही ताकत है कि एक गरीब घर का बच्चा प्रिंस जब गड्ढे में गिर जाता है तो राष्ट्रपति तक कहते हैं कि प्रिंस को बचाना है। भूल जाते हैं लोग कि एक छोटे से गुमशुदा बच्चे को टीवी किस तरह महज चंद घंटों में उसके परिवार तक पहुंचा देता है।
मैं ये नहीं कहता कि प्रिंट मीडिया की अहमियत नहीं- छपे हुए शब्द आज भी बेहद कीमती हैं। पर अखबार में बैठे भाई-बिरादरों को इन शब्दों को पाठकों तक पहुंचाने से पहले ये सोचना होगा कि वो टीवी चैनल्स पर उंगलियां क्यों उठा रहे हैं- क्या उनकी शिकायतें जायज हैं। अगर हॉं- तो स्वागत है ऐसे रिपोर्ट्स का। नहीं- तो फिर बेकार में कागज बर्बाद करने का क्या फायदा।
मुंबई में हुए आतंकी हमलों के दौरान आतंकवादियों का फोनो चलाने वाले चैनल या फिर मना करने के बाद भी आतंकवादियों के खिलाफ सुरक्षा दस्तों के ऑपरेशन की लाइव तस्वीरें दिखाने वाले चैनल से लोग नाराज हैं...ये नाराजगी स्वाभाविक है- जायज भी है। पर इसका ये मतलब नहीं कि आप बाकी सभी चैनल्स पर उंगलियां उठा दें। तमाम चैनल्स ऐसे भी हैं जिन्होंने सुरक्षा दस्तों की तमाम गतिविधियों को कैमरे में कैद करने के बावजूद उन्हें दर्शकों तक नहीं पहुंचाया। पहलू और भी हैं-
1- ताज होटल के बाहर से कवरेज कर रहे टीवी चैनल्स के रिपोर्टर्स तकरीबन 200-300 मीटर से ज्यादा की दूरी पर थे। इतनी दूर से सुरक्षा दस्ते की हर एक गतिविधि पर नजर रखना और उसे कैमरे में कैद करना मुश्किल है। वैसे भी ऑपरेशन ताज के कमरों के भीतर चल रहा था, सड़क पर नहीं।
2- ओबरॉय होटल में भी मीडिया के लोग काफी दूर थे।
3- नरीमन हाउस में जब हेलीकॉप्टर उपर से आया और उससे NSG के कमांडो उतरे, तो उसकी जानकारी तो आतंकवादियों को भी हो गई होगी। हेलीकॉप्टर साइलेंसर लगा कर तो चलता नहीं।
4- ये सच है कि टीवी कवरेज पर आंतकवादियों की नज़र रही होगी, पर आतंकी सिर्फ टीवी चैनल ही देख रहे होंगे, ये मुमकिन नहीं।
मुझे याद आता है कि कई साल पहले (शायद 1999 के आस पास की बात है) जाने माने समीक्षक और टीवी चैनल्स पर तमाम अखबारों में लिखने वाले सुधीश पचौरी जी की एक किताब राजकमल ने छापी थी- ब्रेक के बाद। किताब के विमोचन के मौके पर नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी जैसे बड़े साहित्यकार मौजूद थे। वहां नामवर जी ने कहा था कि टीवी चैनल्स समाज में अपराध और अश्लीलता जैसी तमाम तरह की विसंगतियां फैला रहे हैं- तब भी मैंने जनसत्ता या राष्ट्रीय सहारा में से किसी एक अखबार के संपादक को चिठ्ठी लिखी थी कि क्या प्रिंट मीडिया में मनोहर कहानियां, सच्ची कथाएं और दफा 302 जैसे पत्रिकाएं नहीं छपती। वह भी प्रिंट मीडिया का ही एक हिस्सा हैं। क्या मनोहर कहानियां, सच्ची कथाएं और दफा 302 पर निशाना साधते हुए कोई ये कह सकता है कि पूरा का पूरा प्रिंट मीडिया ही दूषित है। तो फिर गंभीर किस्म की पत्रिकाओं का क्या होगा?
बॉलीवुड में एक कंपोजर हैं-विशाल डडलानी। वो नाराज हैं। वो भी मुंबई में हुए आतंकी हमलों को लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कवरेज से ही नाराज हैं। वैसे ये बात साफ नहीं हो पाई है कि वो सभी चैनलों की कवरेज से नाराज हैं या कुछ चैनलों की। कहीं वो भी तो ये नहीं कहना चाहते कि आतंकी वारदात को भी टीवी चैनल्स ने EVENT बना दिया। अगर वो ऐसा कहना चाहते हैं तो सौ बार सोच लें, क्योंकि कभी भी उनसे पलट कर ये सवाल पूछा जा सकता है कि कल अगर कोई निर्माता-निर्देशक इन धमाकों पर फिल्म बनाएगा और उन्हें साथ काम करने का ऑफर देगा तो क्या वो मना कर देंगे?
24 घंटे लगातार खबरें पहुंचाने वाले चैनल्स के कामकाज के तरीके को समझने की जरूरत है। इस बात को समझने की बेहद जरूरत है कि टीवी चैनल्स में किसी भी पद पर काम करने वाले की सुबह या शाम नहीं होती- होली या दीपावली नहीं होती...होती है तो 10-12 घंटे (कभी कभी इससे काफी ज्यादा) की शिफ्ट, और उस शिफ्ट में इस बात की चुनौती कि वो किसी भी खबर को इस अंदाज में पेश करे कि दर्शक सिर्फ उसके चैनल पर खबर देखें।
इस माध्यम की उम्र जानने की जरूरत है। टीवी न्यूज चैनल्स अभी तकरीबन 10 साल के ही हैं। थोड़ा बचपना है, पर अब चीजों को सहेजने की अक्ल आ रही है उनमें। थोड़ा वक्त दिजिए, टीवी चैनल्स में संजीदगी बढे़गी।