Tuesday, November 4, 2008

बिटिया....


सबसे पहले तो जितेंद्र रामप्रकाश का शुक्रिया....शुक्रिया इस बात का क्योंकि वो हिंदी कविता के लिए वाकई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। कविताओं का फिल्म फेस्टिवल कराना कहीं से आसान काम नहीं...दरअसल कविताएं उनकी जिंदगी में रही हैं। मयूर विहार में उनके घर में एक कमरा है किताबों के नाम...और दिल में तमाम जगह। दिल्ली और चंडीगढ़ में कविताओं का फिल्म फेस्टिवल आयोजित कराया जा चुका है। उनके साथ कुछ ऐसे लोगों की टोली है, जिनके लिए जिंदगी के कुछ मायने हैं।
www.sadho.com इस वेबसाइट पर जाएं, आपको पूरी जानकारी मिलेगी। जितेंद्र जी उस दौर के टीवी एंकर हैं, जब हजारों में एक-दो लोग एंकर बन पाते थे...आज जैसी हालत नहीं थी कि लखूभाई पाठक के मरने के बाद उनकी प्रतिक्रिया लाने का काम रिपोर्टर को दिया जाता है- पीएस पशरीचा के मुंबई के पुलिस कमिश्नर बनने पर पूछा जाता है कि वो किस पार्टी के हैं। खैर, ऐसे सैकड़ों किस्से हैं- जितेंद्र जी ने 2001 के आस पास एंकरिंग का ज्यादातर काम छोड़ दिया था...अपनी मर्जी से, उसके बाद वॉयस ओवर-नए चैनल्स के लिए एंकर्स की वर्कशॉप...और sadho.com
जितेंद्र जी के बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है- पर बाकी कई रोचक किस्से अगली बार...अच्छा हॉं, जितेंद्र जी के पास खुद का लिखा भी बहुत कुछ है- मुझे इंतजार है कि वो साधो के जरिए कब पाठको के पास पहुंचेगा....खैर साधो का सबसे नायाब तोहफा वो कविता जो सर्वेश्वर जी ने लिखी है.....

पेड़ों के झुनझुने,
बजने लगे;
लुढ़कती आ रही है
सूरज की लाल गेंद।
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।

तूने जो छोड़े थे,
गैस के गुब्बारे,
तारे अब दिखाई नहीं देते,
(जाने कितने ऊपर चले गए)
चांद देख, अब गिरा, अब गिरा,
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।

तूने थपकियां देकर,
जिन गुड्डे-गुड्डियों को सुला दिया था,
टीले, मुंहरंगे आंख मलते हुए बैठे हैं,
गुड्डे की ज़रवारी टोपी
उलटी नीचे पड़ी है, छोटी तलैया
वह देखो उड़ी जा रही है चूनर
तेरी गुड़िया की, झिलमिल नदी
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।

तेरे साथ थककर
सोई थी जो तेरी सहेली हवा,
जाने किस झरने में नहा के आ गई है,
गीले हाथों से छू रही है तेरी तस्वीरों की किताब,
देख तो, कितना रंग फैल गया

उठ, घंटियों की आवाज धीमी होती जा रही है
दूसरी गली में मुड़ने लग गया है बूढ़ा आसमान,
अभी भी दिखाई दे रहे हैं उसकी लाठी में बंधे
रंग बिरंगे गुब्बारे, कागज़ पन्नी की हवा चर्खियां,
लाल हरी ऐनकें, दफ्ती के रंगीन भोंपू,
उठ मेरी बेटी, आवाज दे, सुबह हो गई।

उठ देख,
बंदर तेरे बिस्कुट का डिब्बा लिए,
छत की मुंदेर पर बैठा है,
धूप आ गई।
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना



सर्वेश्वर जी की कविता को पढ़ने के बाद दिमाग में आई कुछ पक्तियां अपनी बिटिया शिवी के नाम, जो एक साल की हो चुकी है....


शिवी ने चीजों को तोड़ना शुरू कर दिया है...
तोड़ती भी ऐसे है...कि जुड़ जाएं वो चीजें
हॉं...हॉं, सच में
जो फूलदान कल तोड़ा है उसने
उसे जोड़ दूंगा मैं ‘क्विक फिक्स’ से

शिवी ने बोलना शुरू कर दिया है,
बोलती भी ऐसे हैं...कि अधूरी बातें पूरी लगें
जो पा....पा कल बोला है उसने
उसे पूरा कर दूंगा मैं

शिवी अब ‘पापा-मम्मी’ का सर भी दबाती है
बालों में उंगलियां घुमाती है...थपकियां लगाती है
चक चक करना कहते हैं हम उसे
शुरू हो जाती है वो अपनी नन्हीं हथेलियों से
बाहों में भर लेता हूं मैं उसे

शिवी ने चलना शुरू किया था कुछ दिनों पहले
बालकनी में लड़खड़ाते लड़खड़ाते
अब गिरी कि तब गिरी...
पर लगता है जिस दिन आठ-दस एकसाथ कदम चल लेगी
चांद पकड़ कर मुट्ठी में भर लेगी
दसवीं मंजिल से चांद करीब लगता है उसे
आठ-दस कदम के बाद गोद में उठा लूंगा मैं उसे...
चांद और करीब आ जाएगा।
चलो शिवी...चांद पकड़े...

2 comments:

Kapil said...

स‍हज, सुन्‍दर, सरल अभिव्‍यक्ति। मन को छू गयीं।

वेद रत्न शुक्ल said...

चलो शिवी चांद पकड़ें...। उम्दा!!! मां जैसा वात्सल्य...