Monday, October 26, 2009

तुम लिखो पापा...


पिछले 4-5 महीने से कुछ भी लिखने का वक्त नहीं मिला, हिम्मत भी नहीं थी...बिटिया ने इतनी ताकत दी कि फिर कम से कम कुछ तो लिखने का मन किया...लाइनें अब आपके सामने हैं-



एक रोज शिवी हाथ में पेंसिल लेकर आई
दूसरे हाथ में एक पैड भी था
बोली- पापा लिखो,
मैंने पैड ले लिया, पेंसिल भी
पूछा- क्या लिखूं बेटा
बोली लिखो- शिप्रा मॉल
फिर...?
लिखो-शिवी
फिर...?
लिखो पल्लवी*
फिर...?
लिखो चीकू*
फिर...?
लिखो पापा
फिर...?
लिखो- डॉली की बारी आ गई
फिर...?
लिखो इसमें मजा है
फिर...?
लिखो झूला
फिर शिवी चुप हुई
बोली- हम लिखेंगे झूला
कागज पर कुछ आड़ी तिरछी लाइनें खींचने के बाद बोली
इसमें मजा है...
बिस्तर से उतरी, घूम फिरकर लौटी
देर तक, छोटे से घर में दूर तक
चिल्लाती रही- इमसें मजा है
लौटी बोली
पापा लिखो
मैंने पूछा क्या
लिखो ओलंपिक...
भगवान जाने
छोटी सी बिटिया के दिमाग में क्या क्या चलता रहता है?


(पल्लवी*- मेरी पत्नी का नाम
चीकू*- शिवी को चीकू कहलाना बहुत अच्छा लगता है)

4 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दर...बेटी तो शक्ति होती है हर बाप की.

विवेक रस्तोगी said...

बड़ा ही भावनात्मक लेखन है।

Khushdeep Sehgal said...

शिवेंद्र भाई,
जो चीकू बिटिया आपसे कह रही है, वहीं ब्लॉग जगत के लिए मैं आपसे कह रहा हूं...अब नियमित लिखते रहिएगा..

जय हिंद...

मनीषा पांडे said...

प्‍यारी सी बिटिया की प्‍यारी प्‍यारी बातें। बच्‍चे हमें कितना मनुष्‍य बनाते हैं न शिवेंद्र, जीवन में खोई आस्‍था जैसे लौट-लौटकर आती है।