Friday, September 19, 2008

करीब 10 साल बीत गए या बीतने वाले होंगे...इलाहाबाद में थिएटर के एक मित्र अभिषेक पांडे अपने नाटक की मीटिंग के लिए घर ले गए। बोले- चलो तो सही...कुछ ही दिन बाद नाटक के स्क्रिप्ट राइटर से उनका मनभेद और मतभेद दोनों हो गया...मित्र कहने लगे कि अब फिर आना होगा (हालांकि उन दिनों मैं किसी भी तरह से उनकी मदद करने के काबिल था नहीं)...ये नाटक था लेखक अदम गोंडवी की कविता चमारों की गली पर...और इसका नाम तय हुआ था सरजूपार की मोनालीसा, दो मीटिंग के बाद ही ये हमने अभिषेक से वायदा किया कि हम नाटक देखने आएंगे, वो भी टिकट खरीद कर...हमने ऐसा किया भी। तो अदम गोंडवी की इस रचना तक मैं वाया अभिषेक पांडे पहुंचा।
कुछ साल बाद एक हिंदी चैनल में काम करने का अवसर मिला। ब्रेकफास्ट शो का जमाना था। साहित्यकारों को स्टूडियो बुलाने, उनकी कृतियों पर चर्चा करने का प्रस्ताव हमारे बॉस को पसंद आया। और शुरू हो गया साहित्यकारों को स्टूडियो में बुलाने का सिलसिला...
चैनल के एसाइनमेंट डेस्क पर एक सहयोगी एक दिन सिफारिश लेकर आए। बोले- भाई, एक कवि हैं- कोई जानता नहीं उन्हें- पर दमदार लिखते हैं, उन्हें बुलाओ कोई जुगाड़ लगाकर....मैंने नाम पूछा। बोले- अदम गोंडवी...देरी का कोई मतलब ही नहीं था। मैंने कहा- तुरंत बुलाइए। आने जाने का खर्च और तय पारिश्रमिक चैनल देगा। अदम जी नोएडा आए। चैनल के गेस्ट हाउस में रूके....फिर स्टूडियो भी आए...कविताएं सुनाईं- ग़ज़ले कहीं....
चमारों की गली अदम जी की एक ऐसी रचना है...जो हमारी मित्र मंडली में शायद ही किसी ने ना सुनी हो। अभिषेक (दर्शन) और गिरिजेश साथ हों तो फिर तो कविता का सस्वर पाठ होता है। तरीका थोड़ा निराला है- कमरे की सारी लाइटें बंद कर दी जाती हैं। सिर्फ एक साइड लैंप जलता है- कमरे में मौजूद लोगों के सामने शर्त होती है कि कविता का पाठ शुरू होने के बाद किसी का मोबाइल नहीं बजना चाहिए। बज गया- तो तोड़ दिया जाएगा। इस कविता की शुरूआती 4-6 पक्तियां जिसने भी सुनी, कहा- ये कविता चाहिए। कई दोस्तों को फोटो कॉपी मुहैया कराई। कुछ को मेल किया...फिर लगा क्यों ना इसे ब्लॉग के जरिए हर चाहने वाले तक पहुंचाने का काम करूं....

2 comments:

Unknown said...

शिवेंद्र भाई,

सरजूपार की मोनालिसा के लिए पहली बधाई। ब्लॉग के ज़रिए तुमने देर से ही सही पर सही कदम उठाया है। टीवी में क्रिएटिविटी की अब गुंजाइश नही बची है. जिनके जिनके दिल में दर्द है, वो ब्लॉग पर चले आए हैं, अपनी टीस लेकर। ये गमगीनों का जमघट है, लेकिन इस वीराने में भी अपनेपन का शोर है, यहां कोई नहीं कहता कि तुम्हारा खंभा कमज़ोर है...
लगे रहो...

पंकज शुक्ल

Deepender Sehajpal said...

Bhai Wah,

Accha Kadam uthaya hai lagey raho.

Baaki Hindi Sahitya, Kavita mein meri ruchi rahi hai, Allahabdi hun na, toh apne aap hi sahitya premi hun, Kuch angrezi ke alawa hindi mein bhi likh liya karta tha ladkapan ke dino mein, kabhi mil baithengay toh sunengay sunayengey, phir AMU mein daakhiley ke baad urdu shayri ka bhi chaska laga tha, toh kul mila ke aapki hi tarah rasik hun...Blog ek uttam madhyam hai...mainay bhi isnmey haath azmaya hua hai.. blogging ek tarah ka nasha hai...agar lag jaaye to maza hai...vaise chit put idhar udhar ki entries bhi daaltay raho toh man laga rehta hai...Aneko shubhkamnaey..main aapke blog pe log in karta rahunga...Deepender Sehajpl